प्रिय पाठकों आप सभी नें
श्रीमदभागवत जी की कथा के प्रथम स्कन्ध के प्रथम अध्याय की कथा में यह जाना कि
किसी भी शुभकार्य का प्ररम्भ मंगलाचरण से किया जाता है तथा सूत जी के सम्मुख कथा
श्रवण के लिये विराजित शौनकादि ऋषीयों ने सूत जी से निवेदन किया है कि श्रीकृष्ण
के अवतरण की रसमय कथा उन्हें सुनाएं तथा यह भी पूछा कि जब भगवान श्री कृष्ण इस धरा
से गोलोक प्रस्थान कर गये तो धर्म अपनी रक्षा के लिये किसकी शरण में गया......
शौनकादि के प्रश्न करने से सूत जी बहुत आनन्दित
हुए सन्त तो दयालू होते हैं वो आपको परमात्मा की कथा सुनाना चाहते हैं वो चाहते
हैं आपका कल्याण हो, परन्तु आज जगत में
भौतिकता से प्राभावित मनुष्य के पास अमय ही नहीं है, वो यदि
समय निकालकर जाता भी है तो ऐसे सन्तों के पास जो स्वयं उनसे कुछ चाहते हैं,
भौतिक जगत का कामनाओं से गृसित प्राणी तो अपने भय के कारण सन्त के
पास जाता है और उसे मिलेंगे कौन से सन्त जो खुद कामनाओं से पीड़ित हैं, शास्त्र कहते हैं "बिनु हरि कृपा मिलैं नहीं सन्ता" जब तक
परमात्मा की कृपा नहीं होगी संतों से मिलन संभव नहीं है, आज
जब आप ये ब्लोग पढ रहे हैं तो यह कोई संयोग नहीं है यह परमात्मा की कृपा है आप पर
परमात्मा प्रसन्न है आप पर तब यह भागवत जी की कथा आपको प्राप्त हो रही हैं,,,,
तो मैं यह कह रहा था कि शौनकादि मुनियों की
जिज्ञासा-आकांक्षा सुनते ही सन्त श्री सूत जी का हृदय दृवित हो गया वो मुस्कुराए
और अपनी करुणा भरी दृष्टि से शौनकादि के देखा और कहा हे ऋषियों आपके मंगलमय प्रश्न
का मैं अभिनन्दन करता हुं आप श्रद्धा पूर्वक सुने, "व्यास जी के पुत्र शुकदेव मुनि, और भागवत कहती है कि
जब शुकदेव जी का जन्म हुआ तो वह सोलह वर्ष के थे और शुकदेव जी जन्म से ही परम
वैरागी तथा ब्र्म्हानन्द में लीन रहते थे, कथा कहती हैं कि
शुकदेव जी के जन्म के वाद वैदिक-लौकिक संस्कार अनुष्ठान भी नहीं हो पाए थे कि
शुकदेव जी वन की ओर चल दिये, उनके पिता श्री व्यास जी ने जब
पुत्र को इतनी तन्मयता के साथ वन की ओर जाते देखा तो वह शुकदेव जी एक पीछे-पीछे
भागे और आवाज दिया पुत्र-पुत्र.....
परन्तु शुकदेव जी परम वैराग्य की अवस्था में
थे और परमानन्द में लीन थे उन्होने पिता के बुलाने को सुना नहीं और ना ही जबाब
दिया,
जो जगदीश में लीन है वो जगत की कैसे सुनता, श्री
मदभागवत जी कहती हैं कि शुकदेव जी की तरफ़ से वृक्षों ने उत्तर दिया व्यास जी
को.....
सूत जी कहते हैं,
"ऐसे परम वैरागी बृम्हानन्द में मग्न रहने वाले श्री शुकदेव जी
को जो आप सभी के हृदयों में विराजमान हैं उन्हें मैं प्रणाम करता हुं"
यहां मैं अक बात स्पष्ट कर दूं कि शुकदेव जी
व्यास जी के पुत्र हैं और सूत जी व्यास जी के शिष्य़ हैं दोनों में बहुत निकट का
सम्बन्ध है,,,
सूत जी पुनः बोले,
"हे शौनकादि, सर्व प्रथम यह कि श्री
मदभागवत जी एक अत्यन्त गोपनीय पुराण हैं तथा समस्त वेदादि की सार हैं कलियुग के
काल में मनुष्य लोभ मोह आदि की वासनाओं से गृस्त है और संसार के पाप रूपी अन्धकार
में डुबा हुआ है, इस काल में घोर पाप रूपी अन्धकार में डूबे
मनुष्यों की मुक्ति तथा उनके अध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित करने के लिये
श्रीमदभागवत जी अद्वितीय दीपक के समान हैं, मैं ज्ञान की
देवी सरस्वती तथा व्यास जी को प्राणम करते हुए समस्त जगत के कल्याणार्थ आप सभी के
सम्मुख कथा कहता हुं, जिसको सुनने से मनुष्यों के हृदयों में
पवित्रता आ जाती है और आत्म शुद्धि होती है"
सूत जी बोले, "कलियुग में मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ भगवान श्री कृष्ण की भक्ति है और
भक्ति भी कैसी प्रेमाभक्ति, भगवान कृष्ण से प्रेम करें
निष्काम प्रेम जैसा गोपियों ने किया था, प्रेम में प्रेमी की
अपने प्रियतम से कोई कामना रहती ही नहीं है, प्रेमी सिर्फ़ एक
कामना करता है कि उसका प्रियतम आनन्दित रहे, भगवान श्री
कृष्ण से प्रेम होते ही मनुष्य में ज्ञान और वैराग्य का उदय होता है इसलिये मनुष्य
को निरन्तर एकाग्र मन से भक्ति भाव में लीन होकर परमात्म चरित्र का श्रवण तथा
कीर्तन आदि करना चाहिये..."
"मनुष्य द्वारा किये
जाने वाले सभी प्रकार के धार्मिक कृत्य चाहे वो जप हो जप हो अनुष्ठान हो दान हो
आदि आदि का एक ही लक्ष्य होता है मोक्ष की प्राप्ति, ना कि
भौतिक तृप्ति अथवा लाभ" "वर्तमान काल में मनुष्य अपनी इन्द्रियों की
तृप्ति तथा इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य मान बैठा है, जबकि उसका मुख्य लक्ष्य स्वस्थ जीवन और परमात्म प्राप्त होना चाहिये"
गोस्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है
"जानै बिन ना होये परतीती, बिनु परितीति
ना होवै प्रीती" अर्थात हमें जिस किसी से भी प्रेम करना है उसके बारे में
सबसे जरूरी यह है कि हम उसे जाने और नजदीक से जाने जिससे सिर्फ़ उसके बारे में
जानकारी के अलावा कुछ अनुभव भी हों प्रतीति तो हो, और जब हम
किसी को जान लेते हैं उससे अनुभूति हो जाती है तो उससे हमें प्रेम हो सकता है यह
जरूरी भी नहीं कि उससे हमें प्रेम हो जाये इसी क्रम में सूत जी ने कहा कि भागवत की
कथा का जब श्रवण होता है तो हम परमात्मा की लीलाओं का श्रवण करते हैं जिसके माध्यम
से हम उसके बारे में जानते हैं और चूंकि परमात्मा रस और आनन्द स्वरूप है सो हमें
उसकी प्रतीति होने लगती है हम उसके चरित्र का रसास्वादन करते करते उसको अनुभव करने
लगते हैं महसूस करने लगते हैं और चूंकि परमात्मा आनन्द स्वरूप है और हमारा परम
लक्ष्य है अनन्द की प्राप्ति सो हमारी उसके प्रीति हो ही जाती, प्रीति जैसे जैसे प्रगाढ होते जाती है प्रेमी और प्रियतम दोनों एक होते
जाते हैं...
अन्ततः पर्मात्मा स्वयं भक्त में प्रकट हो जाता है यहां एक बात और
समझने वाली है कि जैसा सूत जी महाराज ने कहा कि भक्ति में कोई हेतु नहीं होना
चाहिये कोई भौतिक इच्छा पूर्ति का लक्ष्य नहीं होना चाहिये तो इस विष्य में इतना
समझना चाहिये कि भक्ति के प्रारम्भिक दौर में भक्त की भौतिक इच्छा पूर्ति का कोई
लक्ष्य हो सकता है परन्तु जैसे जैसे प्रेमाभक्ति प्रगाढता की तरफ़ बढती जाती है
भक्त की भौतिक वासनाएं, मांगें सब स्वतः ही गिर जाती हैं जब
प्रेम गहरा और गहरा हो जाता है तो लक्ष्य सिर्फ़ इतना भर रह जाता है हमारा परमात्मा
प्रियतम कैसे प्रसन्न हो उससे कोई इच्छा या आपेक्षा होना संभव ही नहीं है मनुष्य
ऐसे जैसे परमात्मा के समीप होता जाता है उसका विवेक जाग्रत होता जाता है और अन्ततः
ज्ञान और वैराग्य का उदय हो जाता है"
मित्रों यहां भागवत जी के महत्म्य के बारे
में बहुत कुछ कहा गया जो कुछ पाठकों को अतिश्योक्ति लग सकता है परन्तु इसमें
सन्देह की आवश्यकता नहीं है, उनसे मेरा
निवेदन है कि कुछ दिन निरन्तर भागवत जी का श्रवण करें उन्हें स्वयं यह चमत्कारिक
अनुभूति होने लगेगी, उन्हें स्वयं महसुस होगा कि उनके अन्दर
परमात्मा श्रीकृष्ण से प्रेम प्रकट हो रहा है, और वासनात्मक
गृन्थिंयां खुलने लगेंगी, यह भक्ति का रसायन विज्ञान है जो मनुष्य
के शरीर मन और बुद्धि पर वैज्ञानिक ढंग से अपना प्राभाव स्थापित करता है, और परमात्मा के सम्पर्क में आते ही मनुष्य का स्वभाव बदल जाता है उसे दया,
करुणा और प्रेम की अनुभूतियां होने लगती है और एक दिन उसमें वैराग्य
प्रकट हो जाता है I
प्रायः समाज में ऐसा पाया जाता है कि भौतिक
कामनाएं,
रखने वाले लोग तमोगुणी-रजोगुणी भैरव आदि की उपासना करते हैं उसी
प्रकार पुत्र, धन एश्वर्य आदि की कामना से कुछ लोग
प्रजापतियों आदि की उपासना करते हैं जिस तरह सभी प्रकार की लकड़ियां में एक ही
अग्नि प्रकट होती है उसी प्रकार समस्त भूतों के करण भूत श्री कृष्ण हैं परन्तु
प्राणियों की अनेकता के वे अनेक जान पड़्ते हैं.....
मनुष्य अपनी इन्द्रियों और वासनाओं आदि
के गुणों के विकारों के भावों के कारण से अनेकानेक योनियों को प्राप्त होता है,
और तरह तरह के जीवों की योनियों में उत्पन्न होकर अपने अपने भोगों
का भोग करता है, परन्तु मनुष्य परमात्मा की प्रेमाभक्ति
द्वारा अपने कर्म बन्धनों से मुक्त होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है, और इसके लिये भागवत कथा का आश्रय ही एक माध्यम है.........
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