शनिवार, 18 जुलाई 2015

श्रीमदभागवत कथा का महात्म्य, तृतीय अध्याय, भक्ति के कष्ट की निवृत्ति


सनकादि मुनियों से श्री मदभागवत जी की महिमा सुनकर नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होने सनकादि से कहा, "मैं भागवत जी का ज्ञान यज्ञ आवश्य करुंगा आप मुझे यह स्पष्ट करें कि उस यज्ञ को किस स्थान पर करना चाहिये आप मुझे स्थान के बारे में स्पष्ट करें आप लोग वेद के बताए मार्ग पर चलने वाले हैं अतः यह भी बताएं कि इस कथा को कितने दिन में सुनाना है तथा इसकी विधि के बारे में विस्तार पूर्वक बताएं"

सनकादि मुनि नारद जी की बात सुनकर अत्यंन्त प्रसन्न हुए उन्होने कहना प्रारम्भ किया, "नारद जी आप करुणा और दया की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न कर रहे हैं आप अत्यन्त विवेकी हैं I नारद जी, हरिद्वार नामक क्षेत्र में आनन्द नामक घाट है वहां अनेकों ऋषि निवास करते हैं देवता तथा अनेकों सिद्ध लोग भी उस स्थान पर भृमण करते रहते हैं वह क्षेत्र बहुत ही सुन्दर और मनोरम है, भांति भांति के वृक्ष तथा लताएं उस स्थान को सुन्दरतम बना रही हैं तथा उस स्थान की धरती पर बालू बिछी हुई है जिससे वहां की धरती बैठने के लिये बहुत कोमल लगती है, वह क्षेत्र पुष्पों की सुगन्ध से महकता रहता है उस क्षेत्र में निवास करने वाले जानवर भी आपस में वैर भाव नहीं रखते, अतः आप उस स्थान पर श्रीमदभागवत ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ करिये, भक्ति अपने जीर्ण अवस्था में पड़े पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को साथ लेकर वहां आ जायेगी I

यहां यह स्पष्ट होता है कि जहां भी श्रीमदभागवत कथा होती है वहां भक्ति आदि स्वयं उपस्थित हो जाते हैं, परमात्म कथा के मधुर शब्द कानों में प्रवेश करते ही परमात्म कृपा के परिणाम स्वरूप मनुष्य की दिशा और दशा दोनों सुन्दर हो जाती है I

नारद जी श्रीमदभागवत जी की कथा श्रवण के उद्देश्य से हरिद्वार पहुंच जाते हैं तथा सनकादि ऋषि गण भी कथा करने के लिये वहां पहुंच जाते हैं I जैसे ही नारद जी श्रीमदभागवत जी गंगा तट पर पहुंचे सम्पूर्ण बृम्हाण्ड में इसकी सुचना फ़ैल गई, परमात्मा के रसिक भक्त सम्पूर्ण बृम्हाण्ड से कथा श्रवण हेतु गंगा के तट पर पहुंचने लगे, गंगा का तटीय क्षेत्र पुण्य़ क्षेत्र होता है शुद्ध भूमि में सात्विक भाव जाग्रत होते हैं भागवत जी में तो यह वर्णन है कि कथा श्रवण के लिये गंगा तट पर भृगु, वसिष्ट, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, येगेश्वर व्यास, पाराशर, छायाशुक, जाजलि, जह्नु आदि सभी प्रधान ऋषि-मुनिगण अपने अपने पुत्रों, शिष्यों तथा स्त्रियों समेत पहुंचे तथा इसके अलावा समस्त वेद, उपनिषद, मंत्र, तंत्र, सत्रह पुराण और छ्हों शास्त्र सभी मूर्तिमान स्वरूप में कथा श्रवण के लिये गंगा तट पर पधारे I

सभी पर्वत, समस्त दिशाएं, सभी तीर्थ आदि भी कथा का श्रवण करने पहुंचे और जो लोग नहीं पहुंचे उन्हे सूचना देने और समझाने के लिये स्वयं भृगु महाराज गये I

कथा सुनाने के लिये नारद जी दिये हुए श्रेष्ठ आसन पर सनकादि  विराजमान हुए सभी ने उनकी वन्दना की, परमात्मा का जय जय धोष हुआ, देवताओं ने विमानों से पुष्प वर्षा की उत्सव मनाया गया, सनकादि ने सर्वप्रथम श्रीमदभागवत जी की महिमा का वर्णन करना प्रारम्भ किया, "श्रीमदभागवत जी का नित्य निरनतर श्रवण करना चाहिये इसके श्रवण से भक्ति प्रकट होती है और परमात्मा हृदय में वास करते हैं उन्होंने वर्णन किया कि इस गृन्थ के बारह स्कन्ध हैं तथा कुल अट्ठारह हजार श्लोक हैं यह गृन्थ शुकदेव जी तथा राजा परिक्षित संवाद है इसे बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण करना चाहिये, तमाम शास्त्र और पुराणादि पढने से भृम की स्थितियां हो जाती हैं इनसे उचित यह है कि भागवत जी का श्रवण किया जाये, जिस घर में नित्य भागवत जी का पाठ होता है वह घर तो स्वयं ही तीर्थ के समान हो जाता है तथा उसमें निवास करने वाले लोगों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, सनकादि ने कहा कि हजारों अश्वमेध और सैकड़ों बाजपेय यज्ञ मिलकर भी इस कथा का सोलहवां अंश भी नहीं हो सकते, परमात्मा के भक्तों को चार काम आवश्य करने चाहिये नित्य भागवत जी का पाठ, भगवान का नित्य चिन्तन, तुलसी को जल सिंन्चन तथा गौ की सेवा I"

उद्धव जी ने भगवान से एक बार प्रश्न किया था कि महाराज आपके वैकुण्ठ गमन के पश्चात पाप बढ जायेंगे कलियुग का अगमन हो जायेगा तो आपके भक्त किसकी शरण में जायेंगे ?

तब भगवान ने उद्धव से कहा था, "श्रीमदभागवत जी का जो आश्रय ग्रहण करेगा वो कलि के प्रभाव से बचा रहेगा, मेरी माया भी उसे भृमित नहीं करेगी"

जब भक्त श्रीमदभागवत जी की कथा का श्रवण करता है तो उसके कानों के माध्यम से सिर्फ़ कथा का रस ही नहीं बल्कि स्वयं परमात्मा भी उसके कानों के माध्यम से प्रवेश करके उसके हृदय में विराजित हो जाता है I

कथा कहती है कि जिस समय सनकादि मुनि श्रीमदभागवत जी के महात्तम का वर्णन कर रहे थे तभी अपने पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये भक्ति देवी, भगवान के नाम का कीर्तन "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवा" करते हुए प्रकट हुईंउनके प्राकट्य के बाद सभी श्रोता जन तर्क वितर्क करने लगे I

जिसके पश्चात सनकादि मुनि ने कहा, "श्रीमदभागवत जी का प्रभाव है इसी कथा के अर्थ से पुत्रों सहित भक्ति देवी का प्राकट्य हुआ है"

भक्ति देवी विनय पूर्वक सनकादि को प्रणाम करके बोलीं, "महाराज यह तो कलियुग का प्रभाव है जिसके कारण मैं नष्ट हो चुकी थी, आपकी काथामृत का प्राभव है जिसके कारण मैं पुनः पुष्ट हो गई हुं, आब आप आदेश करें कि मैं क्या करूं"

भक्ति के प्रेम और विनयमय शब्दों को सुनकर सनकादि ने कहा, "हे भक्ति देवी तुम परमात्मा श्री कृष्ण के भक्तों को परमात्म स्वरूप प्रदान करने वाली हो और इस संसार के समस्त रोगों जिन्हे माया-मोह आदि से परमात्मा के भक्तों को मुक्ति प्रदान करने वाली हो, अतः तुम तो धैर्य पूर्वक परमात्मा श्री कृष्ण के भक्तों के हृदयों में निवास करो देवी, ये कलियुग के दोष इस संसार को तो प्रभावित करते रहेंगे परन्तु तुम पर इनकी दृष्टि का प्रभाव तक नहीं पड़ेगा"

यहां सनकादि ऋषि ने बहुत रहस्य की बात कही, कि भक्ति परमात्मा कृष्ण के भक्तों को परमात्मा का स्वरूप प्रदान करने वाली है, अब परमात्मा का स्वरूप क्या है तो पहली विशेषता परमात्मा की वो सदैव आनन्द स्वरूप है, वो सतचित है अर्थात वह किसी से भेदभाव नहीं करता पूतना जो उसे स्तन पर विष लगाकर स्तन पान करने आई थी परमात्मा उसे भी मुक्ति प्रदान करता है, तो यहां सनकादि ने बहुत महत्वपूर्ण रहस्य खोला कि परमात्मा का भक्त स्वयं परमात्मा का स्वरूप हो जाता है I

सनकादि का ऐसा आदेश प्रप्त करते ही भक्ति देवी समस्त भक्तों के हृदयों में जा विराजीं, भागवत जी साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण का स्वरूप हैं इसलिये भागवत जी के आश्रय में रहना ही भक्त का परम लक्ष्य है परम धर्म है अन्य धर्मों का कोई प्रयोजन नहीं है इसके समान I 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें