सूत जी ने कहा कि जब श्री
शुकदेव जी राजा परिक्षित को भागवत की कथा सुनाने के लिये आसन पर विराजमान हुए उस
समय देवता गण अमृत का कलश लेकर शुकदेव जी के पास प्रकट हुए, देवता
सदैव ही भोगवादी रहे हैं अपना हेतु सिद्ध करने में उन्हें महारत हासिल है, सो
देवताओं ने श्री शुकदेव जी को प्रणाम किया और उनसे कहा कि हम यह स्वर्ग का अमृत
अर्थात भोग का एश्वर्य अपने साथ लाए हैं आप हमसे यह ले लीजिये तथा वदले में हमें
आप श्रीमद्भागवत जी का कथामृत प्रदान करें I देवताओं ने यहां यह प्रस्ताव इस कारण रक्खा क्यों कि
कथा के मुख्य श्रोता राजा परिक्षित को सात दिन बाद तक्षक सर्प के द्वारा डसे जाने
से मृत्यु का श्राप था, इस कारण देवताओं ने यह प्रलोभन दिया कि कथामृत के
बदले भौतिक अमृत का महाराज परिक्षित पान करें और कथामृत देवताओं को बदले में
प्रदान कर दें जिससे देवता उस काथामृत का पान करने में सफ़ल हो सकें I
स्वर्ग के अमृत और
श्रीमदभागवत के कथामृत की तुलना तो ऐसे है जैसे कांच के टुकड़े की तुलना अमूल्य
मणियों से की जाये, ऐसा कह कर शुकदेव जी ने देवताओं को स्प्ष्टीकरण दिया
कि श्रीमद्भागवत कथामृत अमूल्य मणिंयों के समान है उसकी तुलना स्वर्ग के अमृत से
नहीं की जा सकती है, स्वर्गामृत तो पुण्य कर्मों के बदले में प्राप्त किया
जा सकता है परन्तु कथामृत तो परमात्म कृपा और परमात्म भक्ति के द्वारा ही उपलब्ध
होता है और परमात्म भक्ति देवताओं को दुर्लभ है I
सुत जी कह रहे हैं हे
ऋषियों जब पूर्व काल में महाराज परिक्षित को श्रीशुकदेव जी ने कथामृत पान कराया था
जिसके परिणामतः महाराज परिक्षित को मुक्ति प्राप्त हुई थी उससे ब्रम्हा जी को भी
अत्यंन्त आश्चर्य हुआ था और उन्होने समस्त मुक्ति साधनों का श्रीमद्भागवत जी से
तुलनात्मक अध्यान किया और उसके परिणाम से उन्हे आश्चर्य हुआ क्यों कि श्रीमदभागव्त
जी अन्य समस्त साधनों से श्रेष्ठ थीं I श्रीमदभागवत जी का सप्ताह विधि से श्रवण करने मात्र
से निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, पूर्व काल में इस कथा को सनकादि ऋषियों ने नारद जी को
सुनाया था, यद्यपि वृत्तांन्त यह भी है की पूर्व काल में देवर्षि
नारद ने इस काथा का श्रवण ब्रम्हां जी के द्वारा किया था I
यहां यह स्पष्ट करना
परमावश्यक है कि भागवत की का पाठ या श्रवण परम लाभदायक है, यहां
यह संदेह उठ सकता है कि कथा का मात्र सप्ताह विधि द्वारा श्रवण से कौन सा मोक्ष
मिल सकता है, तो मेरा निज अनुभव यह है कि यदि हम एक सप्ताह भागवत
जी का श्रद्धा पूर्वक श्रवण मात्र करते हैं तो हमारा मन परमात्मा की रूप लीलाओं
आदि का निरनतर श्रवण करता है चिन्तन करता है, और निरन्तर चिन्तन से हमारा चित्त परमात्म भाव से
प्रभावित होकर पामात्मा के वषय की अवधारणाएं निर्मित करने लगता है और स्थिति यह हो
जाती है कि हम परमात्मा के रूप और लीलाओं का निरन्तर श्रवण करते करते हृदय के स्तर
पर परमात्मा से हमारे सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं हमें परमात्मा से प्रेम हो जाता
है, जिसे कहा जाता है कि ब्रम्ह सम्बन्ध हो जाना, और
भक्ति का जन्म हो जाता है जब भक्ति परमात्मा से प्रगाढ हो जाती है तो शास्त्र कहते
हैं कि भक्ति गर्भवती हो जाती है और भक्ति के गर्भ से ज्ञान का जन्म होता है, यद्दपि
ज्ञान मार्गी/परमात्मा के निर्गुण उपासक कहते हैं कि जब उन्हें सब ज्ञान है तो
भक्ति की कोई आवश्यकता ही नहीं है इस सम्बन्ध में मेरा इतना ही कहना है कि ज्ञान
होना एक बात है और स्थाई ज्ञान होना बात अलग है जैसे शमशान में जाने पर मनुष्य
ज्ञान की बातें करता है परन्तु वहां से वापस आते ही तुरन्त जगत के माय मोह में लीन
हो जाता है, परन्तु परमात्मा की भक्ति के परिणामतः जो ज्ञान
जन्मता है वह स्थाई होता है, और जब ज्ञान प्रगाढ हो जाता है तो भक्त वैराग्य की
चरम अवस्था में स्थिर हो जाता है I
शौनक जी ने सूत जी से
पुनः पश्न किया, "महाराज नारद जी तो परमयोगी और परमात्मा के अनन्य भक्त
हैं वो तो इस जगत के माया मोह से मुक्त हैं और निरन्तर परमात्मा का नाम जप, स्मरण
करते हुए सम्पूर्ण ब्रम्हांड में भृमण करते रहते हैं अतः कृपया यह वर्णन करें कि
नारद जी का सनकादि के साथ संयोग कैसे हुआ और विधिपूर्वक भागवत कथा श्रवण में उनकी
कैसे प्रीति हुई I
सूत जी शौनकादि से
अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा कि हे ऋषिगणों मैं आप लोगों को वह भक्ति से परिपूर्ण
वर्णन सुनाता हुं जो स्वयं शुकदेव जी ने मुझे अपना अनन्य प्रिय जानकर एकान्त में
सुनाया था, वृत्तांन्त यह है कि एक बार ब्रम्हा जी के मानस पुत्र
सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार, विशालापुरी में सत्संग करने के लिये आये थे सनकादि ने
वहां उपस्थित नारद जी महाराज को वहां देखा, सनकादि परम ज्ञानी थे उन्होने नारद जी को देखा तो
उन्हें भासित हुआ कि नारद जी व्याकुल हैं उनके चेहरे पर उदासी थी I सनकादि
ने नारद जी से प्रश्न किया, "हे नारद जी महाराज आप कुछ उदास से प्रतीत होते हैं चिन्तातुर
क्यों हैं आप की व्याकुलता का क्या कारण है आप कहां से आ रहे हैं आपको देखने से आप
उस पुरुष से प्रतीत हो रहे हैं जिसका जीवन भर का कमाया सारा धन लुट गया हो, आपके
जैसे परमात्म भक्त को इस अवस्था में नहीं होना चाहिये I आप
अपनी इस अवस्था का कारण हमें बताएं I
नारद जी ने सनकादि के
प्रश्न करने पर उन्हें बताना प्रारम्भ किया, बोले मैं इस प्रथ्वी लोक को इस ब्रम्हाड का सर्वोत्तम
लोक समझता हुं और इसी कारण यहां आया हुं, यहां पुष्कर है प्रयाग है काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग
तथा सेतुबन्ध आदि तीर्थों में मैं विचरण करता रहा, परन्तु इस धरती पर मुझे कहीं भी मनसिक संन्तुष्टि
प्राप्त नहीं हुई I अधर्म के सहयोगी कलियुग का साम्राज्य इस धरती पर फ़ैल
चुका है, अब इस प्रथ्वी पर सत्य, तप, शुद्धता, दया तथा दान बचे नहीं हैं समस्त प्राणी सिर्फ़ अपने
उदर पोषण में व्यस्त हैं और अपने उदर पोषण के लिये असत्य भाषण करते हैं तथा तरह
तरह के उपद्रव में व्यस्त हैं जिन्हें साधू सन्त कहा जाता है वो पाखण्डी हो गये, परन्तु
दिखावे में त्यागी से लगते हैं स्त्री के धन को लोग खाने लगे हैं तीर्थों आदि में
अधर्मियों का अधिकार हो चुका है, प्रथ्वी पर योगीयों, तपस्वियों, ज्ञानियों आदि का अकाल पड़ गया है, इस
प्रथ्वी पर सत्कर्मी बचे हैं, सारे साधन कलि की अग्नि में जल कर भस्म हो गये हैं
ऐसाकहते हुए नारद जी अत्यंन्त ही दुखी हो गये, उन्होने कहा कि आज ब्राम्हण धन लेकर वेद पढाते हैं
स्त्रियां वैश्या वृत्ति कर अपना उदर पोषण कर रही हैं I
नारद जी बोले इस तरह के अधर्मपूर्ण
वातवरण को देखता हुआ यमुना के तट पर पहुंचा जहां गोविन्द ने लीलांए की थीं, मुनिवरों मैंने वहां अत्यंन्त आश्चर्य जनक
स्थितियां देखीं,
नारद जी बोले कि
मैंने वहां एक अत्यंन्त दुखी और खिन्न स्त्री को बैठे देखा, पास ही दो वृद्ध से दिखने वाले पुरुष अचेत
अवस्था में धरती पर पड़े थे,
उनकी सांसे बहुत
तेज तेज चल रही थीं,
दुखी स्त्री उन
दोनो पुरुषों की सेवा करने में लगी थी और उन्हें चेतना अवस्था में लाने का प्रयास
कर रही थी और साथ ही विलाप कर रही थी वह रह रह कर अपनी मदत के लिये परमात्मा को भी
पुकार रही थी I
उसके आस पास कभी
भीड़ एकत्र थी उस भीड़ में मौजूद महिलाएं उसे समझाने का / धीरज दिलाने का प्रयास कर
रही थीं I मुनिजनों मैं भी भीड़ एकत्र देखकर
कौतूहल वश वहां गया,
मुझे देखते ही वह
दुखी स्त्री खड़ी हो गई और विलाप करती हुई मुझसे बोली, "हे महात्मा जी आपसे मेरा निवेदन है
कुछ छ्ड़ों के लिये रुक कर मेरी चिन्ताओं को समाप्त करते जाइये, महत्मा जी आपका दर्शन संसारी प्राणियों के समस्त
पापों का शमन करने वाला है आप कुछ वचन कहें आपके वचनों से मेरे दुखों को भी शान्ती
मिलेगी, मनुष्य का जब बहुत भाग्य उदय होता
है तो उसे सन्त महात्माओं के दर्शन होते हैं I"
दुखी युवती की बातें सनकर
नारद जी महाराज बोले, "हे देवी तुम कौन हो, ये दोनों पुरुष तुम्हारे कौन हैं, ये
स्त्रियां कौन हैं, तथा विस्तार पूर्वक अपने कष्टों का दुखों का कारण
बताओ I"
नारद जी के वचनों को
सुनकर वह व्यथित स्त्री बोली, "महाराज मैं भक्ती हूं और ये दोनों मूर्छित युवक मेरे
पुत्र ज्ञान और वैराग्य हैं, कलयुग के प्राभाव वश मेरे दोनों पुत्रों के शरीर
अत्यंन्त जर्जर हो चुके हैं, ये जो महिलाएं मेरे आस पास खड़ी होकर मुझे दिलासा दे
रही हैं ये सभी गंगा यमुना आदि सभी देवियां हैं तथा मेरी सेवा के निमित्त यहां आई
थीं, इन देवियों द्वारा सेवित होने के पश्चात भी मुझे
सुख-शान्ती की अनुभूति नहीं हो रही है I"
बृद्ध स्त्री पुनः नारद जी से अपनी
दयनीय स्थिति के बारे में बोली,
"मैं भक्ति हुं
मेरा जन्म द्रविण देश अर्थात दक्षिण भारत में हुआ तथा कर्नाटक में मेरा पोषण हुआ
महाराष्ट्र में मेरा सम्मान हुआ किन्तु गुजरात में मुझे बृधत्व ने घेरा लिया
अर्थात मुझे गुजरात में बुढापे के कष्ट से गुजरना पड़ रहा है I घोर कलियुग के प्रभाववश पाखण्ड का साम्राज्य फ़ैल
चुका है जिसके कारण मुझे इस घोर कष्ट से गुजरना पड़ रहा है, मैं स्वयं बुढापे से जूझ रही हुं मेरे पुत्र
ज्ञान और वैराग्य भी अत्यंन्त दुर्बल और निश्तेज हो गये हैं उनका कष्ट मुझे और
अधिक दुखी कर रहा है I"
बृद्ध महिला नारद जी महाराज से पुनः
बोली, "महाराज मैं जब से वृन्दावन की पतित
पावनी भूमि पर आई हुं तो मुझे चेतना प्राप्त हुई है परन्तु मेरे पुत्र अभी भी
अत्यंन्त थके और दुखी से प्रतीत हो रहे हैं,
मैं युवा सी
प्रतीत हो रही हूं और मेरे पुत्र अत्य्न्त दुर्बल और बृद्ध से दीखते हैं मेर्ते
लिये इससे अधिक कष्टप्रद और क्या होगा,
महाराज आप परम
बुद्धिमान और योगी है आप मेरा मार्ग दर्शन करें जिससे मुझे इस दुख से मुक्ति मिल
सके I"
बृद्ध महिला के दुख के विषय में
सुनने के पश्चात श्री नारद जी महाराज बोले,
"साध्वि मैं अपने
पूर्ण ज्ञान के द्वारा तुम्हारे लौकिक जगत में ब्याप्त समस्त कष्टों में को देख
रहा हुं तुम्हें इस प्रकार से दुखों का चिन्तन करके विलाप करना शोभा नहीं देता, धैर्य धारण करो परमात्मा तुम्हारा कल्यान आवश्य
करेंगे"
सूत जी महाराज शौनकादि ऋषियों को
कथा श्रवण कराते हुए कहते हैं कि परमात्मा कृष्ण अपनी योग माय से बृद्ध स्त्री के
दुखों के कारण का चिन्तन किया और बोले I
नारद जी ने कहा, " हे देवी ध्यान पूर्वक आप मेरी बातों
को सुनें, वर्तमान समय का नाम कलयुग है और यह
दुःख का साम्राज्य है,
इस कलिकाल में
सदाचार, योगमार्ग तथा तप आदि लुप्त हो चुके
हैं, लोग सठता और दुष्कर्म में लीन हैं
संसार में जहां भी आप देखें सत्पुरुष दुख से अत्यंन्त दृवित हैं और दुष्ट लोग सुख
पूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं,
इस कलिकाल में जिस
बुद्धिमान मनुष्य का धैर्य प्रभावशाली है वह ही ज्ञानी है पण्डित है, निरनतर प्रथ्वी पर पाप वृत्ति में बृद्धि होती
जा रही है जिसके परिणाम स्वरूप धरती का भार निरनतर बढता जा रहा है परिणामतः शेष जी
जो अपने फ़न पर इस प्रथ्वी को धरण किये हैं उनके सिर पर भार बढता जा रहा है, आज यह प्रथ्वी पापों के कारण रहने योग्य क्या
छूने के काबिल नहीं बची है,
पापाचार की निरनतर
बृद्धि के कारण ये भक्ति देवी आज जगत में तुन्हारे दर्शन दुर्लभ हो चुके हैं
मनुष्य निरनतर विषयों में आसक्त होकर अतृप्त और दुखी हैं I हे देवी वृन्दावन श्रीकृष्ण की लीलास्थली है और
इस वृन्दावन में आकर तुम्हें तुम्हरी चेतना उअर सौन्दर्य की पुनः प्राप्ति हुई है
यह वृन्दावन धाम धन्य हैं इस परमात्म के लीलाधाम में आज भी भक्ति निरन्तर नृत्य कर
रही है I परन्तु हे देवी इस वृन्दावन धाम में
आने के पश्चात भी तुम्हारे पुत्रों के बृधत्व तथा दुर्बलता में कोई परिवर्तन नहीं
हुआ है"
नारद जी के मुख से इस
परकार के वचनो को सुनकर भक्ति देवी पुनः बोलीं,
"इस कलियुग को महाराज
परिक्षित ने क्यों रहने दिया इसके आते ही धर्म लुप्त हो गया और चारो ओर अध्रर्म का
साम्राज्य स्थापित हो गया है, ये अधर्म की निरनतर ब्रद्धि हो रही है और ये सब
परमात्मा श्री हरि कैसे देख रहे हैं मुझे संदेह हो रहा है, हे माहमुने
मुझे आपके वचनो से अत्यंन्त शान्ती मिल रही है कृपया आप मेरा संदेह दूर करें"
नारत जी बोले, ’ हे
देवी भगवान श्री कृष्ण जब इस प्रथ्वी से बिदा होकर अपने परमधाम को गये उसी दिन से
समस्त धर्माचरणों में बाधा उत्पन्न करने वाले कलयुग का आगमन हुआ, जब
महाराज परिक्षित दिग्विजय के लिये निकले थे उस समय महराज परिक्षित को कलियुग
रास्ते में मिला था परन्तु उस समय कलियुग अत्यंन्त दीन हीन सा प्रतीत हो रहा था और
वह महाराज परिक्षित की शरण में आ गया, महाराज ने उस समय उसका बध ना करने का निश्चय किया
उसके कई कारण थे पहला कारण तो यह था कि उस समय के वर्तमान काल में जो फ़ल तपस्या, योग और
समाधि लगाने से प्राप्त होता था वह फ़ल कलयुग में मात्र हरि कीर्तन करने से प्राप्त
होता है I कलियुग के प्रभावी होने के कारण आज मनुष्यों में दम्भ, पाखण्ड, ईर्ष्या, काम
आदि तो बढ गये हैं इसमें किसी मनुष्य का दोष नहीं है यह समय का प्रभाव है"
देवर्षि नारद के इस
प्रकार के वचनों को सुनकर भाक्ति बोली,
"हे नारद जी आप धन्य हैं
और आपसे मिलने और आपसे वार्ता होने से मैं भी धन्य हो गई हुं, आपकी
कृपा और आपके मर्गदर्शन से प्रहलाद और ध्रुव जी ने माया पर विजप प्राप्त की थी, आप
ब्रम्हा जी के पुत्र हैं आपको बारम्बार प्रणाम है"
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