गुरुवार, 23 जुलाई 2015

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (सप्तम अध्याय (1)) शुकदेव जी का भागवत अध्यन




     मित्रों जय श्री कृष्ण, छ्ठे अध्याय में आपने जाना कि नारद जी ने व्यास जी को श्रीमदभागवत जी की रचना के लिये कहा और कहकर चले गये…….
     
     नारद जी के चले जाने के बाद का वृत्तान्त है सरस्वती नदी के तट पर सुरम्य वातावरण में बेर के वन में व्यास जी का आश्रम है जहां कल-कल की ध्वनि से सरस्वती प्रवाहित हो रही हैं, चारों ओर बेरों के पेड़ हैं, उन्ही के मध्य स्थित अपने आश्रम में व्यास जी ने भक्ति योग से अठारह जहार श्लोकों की श्रीमदभागवत जी की रचना की……
    
     भागवत की रचना करने के बाद व्यास जी को लगा कि अब उनका कार्य पूर्ण हो गया है, परन्तु अब उन्हें यह चिंता सताने लगी कि अब इस गृन्थ का प्रचार कौन करेगा, क्यों कि भागवत तो परम्हंस संहिता है, श्री कृष्ण स्वयं परमहंस हैं अतः इस शास्त्र का प्रचार किसी परमहंस को ही करना चाहिये, ऐसा व्यास जी विचार कर रहे थे और चिंन्तित भी कि आखिर किसे प्रचार कार्य सौंपा जाये…….
   
     बात जब परमहंस की हो तो व्यासपुत्र शुकदेव जी का स्मरण आ जाता है, शुकदेव जी निर्विकारी हैं, जन्म से ही सिद्ध योगी हैं, जन्मते ही तपश्चर्या के लिये वन को चले जाने वाले शुकदेव जी निरन्तर बृम्ह के चिन्तन में लीन रहते हैं, ऐसे शुकदेव के द्वारा भागवत जी के प्रचार सर्वोत्तम रहेगा ऐसा विचार व्यास जी को आया परन्तु मुख्य समस्या यह थी कि शुकदेव जी तो वन में तपश्चर्या के लिये गये हुए हैं और उन्हें वन से बुलाया कैसे जाये ? व्यास जी विचार कर रहे हैं कि यदि वह वन से वापस घर आ जायें तो मैं उन्हें भागवत जी का अध्यन कराउं जिसके पश्चात उन्हें श्रीमदभागवत जी के प्रचार का कार्य सौंपूं…..


    व्यास जी ने विचार किया कि जिन श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अनुपम है अदभुत हैं उन्हे देखकर योगियों का चित्त आकर्षित हो जाता है ऐसे स्वरूप वाले कृष्ण की लीला श्लोक से शुकदेव कैसे खिंच के नहीं आएंगे…..
   
    व्यास जी ने अपने शिष्यों को वन में भेजने का निश्चय किया परन्तु शिष्यों ने उन्हे बताय कि गुरुदेव जंगल में हिंसक पशु आदि हैं इस पर व्यास जी ने शिष्यों को कहा कि यदि तुम्हें वन में हिंसक पशुओं का भय लगे तो भागवत जी के श्लोकों का पाठ करना, और श्रीकृष्ण तुम्हारे साथ हैं ऐसा महसूस करना,….
  
   व्यास जी के शिष्य वन में शुकदेव जी को ढूंढने के लिये चले गये, वन में शुकदेव जी तप करने में लीन थे निर्गुण ब्रम्ह के उपासाक, ब्रम्ह चिंन्तन में लीन थे शुकदेव जी…..
 
   व्यास जी के शिष्यों ने समाधिस्थ शुकदेव जी को देखा और उनके सम्मुख भागवत जी के श्लोक का पाठ किया,



बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
बिभ्रद वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम I
रन्ध्रान वेणोरधरसुधया पूरयन गोप्वृन्दै-
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद गीतकीर्तिः II

      ब्रम्हचिंन्तन में लीन समाधिस्थ शुकदेव जी ने श्लोक सुना श्लोक के भाव थेश्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं, उन्होने मस्तक पर मोर पंख धारण किया हुआ है कानों पर पीले-पीले कनेर के पुष्प, शरीर पर सुन्दर मनोहारी पीताम्बर शोभायमान हो रहा है तथा गले में सुन्दर सुगन्धित पुष्पों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं, रंगमंच पर अभिनय करने वाले नटों से भी सुन्दर और मोहक वेष धारण किये हैं श्यामसुन्दर I बांसुरी को अपने अधरों पर रख कर उसमें अधरामृत फ़ूंक रहे हैं ग्वालबाल उनके पीछे पीछे लोकपावन करने वाली कीर्ती का गायन करते हुए चल रहे हैं, और वृन्दावन आज श्यामसुन्दर के चरणों के कारण वैकुण्ठ से भी अधिक सुन्दर और पावन हो गया है

    शुकदेव जी ने श्लोक को जैसे ही सुना वह आनन्द से भाव विभोर हो गये, निर्गुण बृम्ह के उपासक के हृदय में परमात्मा की सुन्दर मनोहारी सगुण स्वरूप की झांकी श्लोक के शब्दों के साथ साथ प्रकट हो गई, शुकदेव जी के कान श्लोक का श्रवण कर रहे थे चित्त में परमात्मा की सुन्दर छवि शोभायमान हो रही थी, श्लोक के समाप्त होते ही शुकदेव जी व्याकुल हो उठे, तभी व्यास जी के शिष्यों ने दूसरे श्लोक का गायन शुरू कर दिया:-


अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी I
लेभे गतीं धात्र्युचितां ततोन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम II

   दूसरे श्लोक के भावर्थ, “पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में कालकूट नामक हलाहल विष लगाकर भगवान कृष्ण को मार डालने के प्रयोजन से भगवान को अपने स्तनों से दूध पिलाया, परन्तु हमारे गोविन्द ने तो पूतना का भी उद्धार कर दिया, उन्होने सोचा कि भले राक्षसी थी तो क्या हुआ मुझे मारने आयी थी तो क्या हुआ, मुझे स्तन पान करया उसने तो आखिर वह मेरी धाय मां ही तो हुई और उसकी गति तो मोक्ष होनी चाहिये, ऐसे हैं हमारे गोविन्द कृपा के सागर, करुणा की मूर्ती हैं उनके आलाव और किसकी शरण ग्रहण करूं

    शुकदेव जी विरक्तों के प्रधान हैं निरनतर अभेद ब्रम्ह में लीन रहने वाले और गोविन्द के रूप स्वरूप का वर्णन सुनकर आकर्षित हो गये, कृष्ण का अर्थ ही है सर्वा-कर्षति इति कृष्ण, जो सभी को आकर्षित कर ले वही कृष्ण है, निर्गुण बृम्ह का उपासक, सगुण बृम्ह के रूप वर्णन से वैराग्य छोड़ परमात्मा के राग में लीन हो गया, यही भागवत जी का मुख्य स्वभाव है, भागवत जी का निरन्तर श्रवण करने से परमात्मा के प्रति जीव आकर्षित हो जाता है उसमें परमात्म प्रीति जन्मती है और वह भक्त बन जाता है समर्पण घटित हो जाता है….
 
    शुकदेव जी देखने लगे कि आखिर कौन इन श्लोकों का पाठ कर रहा है, उन्हें व्यास जी के शिष्यों के दर्शन हुए, शुकदेव जी ने उनसे पुछा कि आप कौन हैं और ये जो श्लोक आप पाठ कर रहे थे यह किसके द्वारा रचित हैं…..

    शुकदेव जी के प्रश्न करने पर व्यास जी के शिष्यों ने कहा, “हम लोग व्यास जी के शिष्य हैं तथा जिन श्लोकों का हम पाठ कर रहे थे वह व्यास जी द्वारा रचित गृन्थ श्रीमदभागवत जी के हैं भागवत जी में इस तरह के अट्ठारह हजार श्लोक हैं

    शुकदेव जी ने जैसे ही यह सुना कि उनके पिता द्वारा रचित गृन्थ में इस तरह के अट्ठारह हजार श्लोक हैं तो उनके मन में श्रद्धा उत्पन्न होने लगी कि मैं अपने पिता से भागवत जी पाठ आवश्य सुनुंगा, शुकदेव जी कामना के भाव से मुक्त थे परन्तु उन्होने जब श्लोक सुने तो उन्हे यह महसूस हुआ कि ये जो श्लोक परमात्मा का वर्णन में लिखे गये थे इन्हें सुनने से जागृत अवस्था में समाधी लग जाती है, ऐसा वर्णन परमात्मा का इस कारण उनके हृदय में भाव हुआ कि परमात्मा की ऐसी लीला का वर्णन आवश्य श्रवण करना चाहिये I

    शुकदेव जी अपने पिता व्यास जी के शिष्यों के साथ चल पड़े, आश्रम पहुंच कर शुकदेव जी ने पिता को साष्टांग प्रणाम किया, पिता ने भावुक हृदय से पुत्र को गले से लगा लिया
    शुकदेव जी ने पिता से आग्रह किया कि मुझे भागवत का अध्यन कराओ, व्यास जी ने विचार किया कि हे प्रभू आपकी इस रसमयी कथा का सच्चा अधिकारी तो मेरा पुत्र ही है, यह परम वैरागी है, बृम्हानन्द में निरन्तर लीन रहने वाला….
     
    शुकदेव जी ने प्रसन्न हृदय से श्रीमदभागवत जी का अध्यन किया……

   

7 टिप्‍पणियां:

  1. जिन श्लोकों ने निराकार ब्रह्म के उपासना में समाधिस्थ श्री शुकदेव परमहंस को साकार ब्रह्म के स्वरूप सागर में डुबो दिया और भागवतम को अपनी वाणी से अमर कर, ऐसे श्लोकों पर टिप्पणी बेमानी होगी।

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  2. धन्यवाद.
    बहुत सुन्दर और सुचारू रूप से आपने भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र तथा शुकदेवजी की समाधि अवस्था का प्रसंग उधृत किया है.
    हम आपसे, "बर्हापीडं नटवरवपुः..." श्लोक का रहस्य जानना चाहते हैं तथा श्लोक के स्मरण से चित्त तथा शरीर में होने वाले रोग निवारण के विशय में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं।

    अभिनंदन तथा शुभकामनाएं

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