प्रिय पाठकों आप सभी का
श्रीमदभागवत जी के महत्म्य के चौथे अध्याय में
हार्दिक स्वागत है, आप इसे पढ रहे हैं यह प्राण प्रियतम सांवरिया कृष्ण की
कृपा है,
सूत
जी महाराज शौनकादि मुनियों को कथा का श्रवण करा रहे हैं वृत्तांन्त यह चल रहा था
कि सनकादि हरिद्वार में नारदादि को कथा श्रवण करा रहे हैं तभी भक्ति का वहां
प्राकट्य हुआ और सनकादि ने भक्ति देवी से कहा कि परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों के
हृदय में आप विराजें, सनकादि के कहने से
भक्ति देवी समस्त भक्तों के हृदयों में पधार गईं I सभी
भक्तों के हृदयों में परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम भाव का प्राकट्य हुआ, अनन्य भक्ति का भाव जाग्रत हो गया और कथा कहती है कि इस भाव को देखकर
परमात्मा कृष्ण स्वयं वैकुण्ठ छोड़्कर कथा में प्रकट हो गये I
परमात्मा
श्रीकृष्ण सुमनोहर रूप में भक्तों को दर्शन लाभ दे रहे हैं,
भागवत जी में वर्णित है कि भगवान श्री कृष्ण त्रि-भंग मुद्रा में
खड़े हैं त्रि-भंग का अर्थ है खड़े होने की वह मुद्रा जिसमें शरीर पर तीन जगह से बल
पड़्ता है, शरीर तीन जगह से टेढा रहता है टांगें भी टेढी हैं,
कमर तिरछे कमान सी है और गरदन कुछ बांकेपन से झुकी है आपार सौन्दर्य
सुकुमारता है कृष्ण की छवि में, गले में वनमाला सुशोभित हो
रही है श्याम वर्ण श्यामसुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए अपनी माधुर्य चितवन से
भक्तों को निहार रहे हैं मानो भक्तों के नेत्रों से उनके हृदय में प्रवेश करना
चाहते हैं श्यामसुन्दर....
भक्तों
को प्रतीत हो रहा है कि गोविन्द सिर्फ़ उसे ही दृष्टि भरकर निहार रहे हैं,
उनके वक्ष पर कौस्तुक मणि दमक रही है, शरीर पर
चन्दन का लेप है जिससे चन्दन की महक पूरे वातावरण को महका रही है, गोविन्द का सौन्दर्य करोणों कामदेवों से अधिक मनमोहक और लोकाभिराम था,
अधरों पर शुआमसुन्दर के मुरली विराज रही थी.....
परमात्मा
के इस रूप का दर्शन कर भक्तों का चित्त निर्मल हो गया,
जिसने परमात्मा की इस छवि के द्रशन किये वह स्वयं कृष्ण हो गया I
भक्त
गोविन्द की जय जयकार करने लगे, पुष्पों की
वर्षा होने लगी....
नारद
जी भक्ति भाव से पूर्ण वातावरण को देखकर बोल पड़े, "हे सनकादि मुनीश्वरों आज यह जो अलौकिक वतावरण हमारे सम्मुख है यह परमात्मा
की अलौकिक महिमा का प्रमाण है, यहां तो मौजूद पापी, तथा दुष्ट और पाशविक वृत्ति वाले भी परमात्मा की कथा के प्रभाव से निष्पाप
हो गये हैं....सभी के चित्त परमात्मा की कृपा से निर्मल हो गये है...अब इसमे कोई
भी सन्देह नहीं है कि परमात्मा की यह श्रीमदभागवत कथा इस कलिकाल में चित्त की
शुद्धि तथा इस जीवन में पापों का नाश करने का पवित्र साधन है I हे मुनीश्वरों आप बहुत दयालू और करुणामय हो आपने समस्त मानव जगत के कल्याण
की कामना से यह आयोजन किया है I" नारद जी मुनियों से
निवेदन करके बोले, "हे मुनियों अब आपसे निवेदन है कि यह
बताएं कि इस कथा सप्ताह रूपी यज्ञ के माध्यम से इस संसार के कौन-कौन से लोग पवित्र
हो जाते हैं"
सनाकादि
मुनि नारद जी की जिज्ञासा से प्रसन्न हुए और मुस्कुराते हुए बोले,
"हे नारद जी वो मनुष्य जो निरन्तर पाप कृत्यों में रत रहते हैं,
निरन्तर दुराचार करते रहते हैं अनैतिक मार्ग पर चलते हैं, निरन्तर क्रोध में जलते रहते है, लगातार कामासक्त
रहते हैं कामनाओं में चालाकी और धूर्तता से जीवन में पापाचार करते रहते हैं,
जो सत्य से विमुख हैं माता पिता का अपमान करते हैं, दिखावा करने वाले हैं पाखण्डी हैं दूसरे की सम्पाति अथवा प्रगति देखकर
जलते हैं ये सभी कलियुग में श्रीमदभागवत जी के सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं
तथा इसके अलावा पांच तरह के पाप जिन्हे महापाप कहा जाता है जैसे मदिरापान करने
वाला, बृम्हहत्या करने वाला, स्वर्ण की
चोरी करने वाला, गुरु स्त्री गमन करने वाला तथा विश्वासधाती
भी श्रीमदभागवत जी के सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं I"
सनकादि
मुनि ने नारद जी आदि के सम्मुख यह वर्णन किया कि कौन कौन से लोग इस श्रीमदभागवत जी
के सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं इसके पश्चात शौनकादि बोले,
"हे नारद जी अब मैं तुम लोगों को इसी विषय पर एक प्राचीन वर्णन
सुनाता हुं, प्राचीन काल में तुन्गभद्रा नदी के तट पर एक
सुन्दर नगर था वहां समस्त वर्णों के लोग अपने अपने धर्मों का अचरण करते हुए आनन्द
पूर्वक निवास करते थे, उसी नगर में धर्मिक, वेदाध्यन करने वाला एक आत्मदेव नामक ब्राम्हण अपनी पत्नी धुन्धुली के साथ
निवास करता था, आत्मदेव नामक ब्राम्हण धर्मशील था परन्तु
उसकी पत्नी झगड़ालू, लोभी तथा लालची थी ब्राम्हण आर्थिक रूप
से सम्पन्न था तथा आनन्दपूर्वक जीवन यापन करता था परन्तु बहुत उम्र हो जाने के
बावजूद ब्राम्हण के कोई सन्तान नहीं थी, पुत्र की चिन्ता में
ब्राम्हण अत्यन्त व्याकुल और चिन्तित रहने लगा, ब्राम्हण एक
दिन पुत्र की चिन्ता से व्याकुल होकर वन में चला गया वहां वह बैठकर विलाप कर रहा
था तभी उसे एक सन्यासी महात्मा के दर्शन हुए, ब्राम्हण को
विलाप करते देख महत्मा जी का हृदय करुणा से भर गया उन्होने ब्राम्हण को धीरज
दिलाते हुए पूछा कि उसे क्या कष्ट है किस कारण से वह विलाप कर रहा है, ब्राम्हण ने महात्मा जी से कहना प्रारम्भ किया, "महाराज मैं जाति का ब्राम्हण हुं तथा पूर्व जन्म में कृत पापों के कारण
दुखों को भोग रहा हुं मेरे कोई सन्तान नहीं है और तो और मैं जो गाय पालता हुं वह
भी बांझ हो जाती है मैं यदि कोई पेड़ लगाता हुं तो वह पेड़ भी फ़ल नहीं देता, मैं अभागा हुं पुत्र हीन होकर दुख से जीवन बिताने की अपेक्षा मैं मृत्यु
को प्राप्त कर दुखों से भुक्ति हेतु वन में आया हुं, आप ही
बताएं आखिर पुत्रहीन जीवन का क्या औचित्य है ??"
सन्यासी
ने ब्राम्हण को कहा, "मनुष्य का
जीवन उसके कर्मों के आधीन है, कर्म जीवन में प्रधान है विवेक
से चिन्तन करो और जीवन में वासनात्मक इच्छाएं छोड़ दो, तुम्हें
तुम्हारे प्रारव्ध के अनुरूप सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई सन्तान की आशा और इच्छा
मत करो, परमात्मा की शरण में चित लगाओ और भक्ति करो,,पूर्वकाल में राजा सगर और अंग्ङ ने सन्तान के कारण महान दुःख प्राप्त किये
थे, सन्तान की इच्छा मत करो विवेक का आश्रय करो"
सन्यासी
महत्मा के वचनों को सुनकर ब्राम्हण बोला, "महात्मा जी विवेक से मुझे क्या प्राप्त होगा, पुत्र
के अभाव में मेरा जीवन अत्यन्त कष्टमय हो गया है मैं इस कष्ट से मुक्ति के लिये
अपना जीवन समाप्त करूं यही एक मात्र विकल्प है मेरे पास, मैं
पुत्र के अभाव में अब नहीं जी सकता"
सन्यासी
ने ब्राम्हण के वचनों को सुना तो उन्हें ब्राम्हण पर दया आ गई उन्होने ब्राम्हण से
कहा,
"हे ब्राम्हण तुम्हे जो जीवन प्राप्य है यह विधाता के लेखे के
अनुसार है, विधाता के लेख को मिटाने के लिये हठ करके राजा
चित्रकेतु को बहुत कष्ट प्राप्त हुए थे, तुम पुत्र की कामना
का हठ त्याग कर अपने नगर को प्रस्थान करो यही तुम्हारे लिये हितकर है, अपने किये कर्मों के भोगों को भोगना ही एक मात्र विकल्प है इसी तरह मनुष्य़
कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है"
यहां
यह समझना अत्यन्त आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य को उसके पूर्वकृत कर्मों के
फ़लस्वरूप प्रारब्धवश जीवन में सुख दुख प्राप्त होते हैं जिनका त्याग नहीं किया जा
सकता,
जीवन में सुख दुख जो भी प्राप्त हो रहा है उसे परमात्मा की कृपा
मानकर आनन्दपूर्वक स्वीकार करना ही मनुष्य का कर्तव्य है आज कष्ट से मुक्ति के
चक्कर में कल अधिक कष्टों को भोगना पड़ सकता है.....
महत्मा
जी के बार बार समझाने के बाद भी ब्राम्हण ने अपनी हठ नहीं छोड़ी तब महात्मा जी ने
विचार किया कि यह अपना आग्रह नहीं त्यागना चाहता आखिर अन्ततः महात्मा जी ने
ब्राम्हण को एक फ़ल दिया और कहा,"हे
ब्राम्हण यह फ़ल तुम अपनी पत्नी को खिला देना इससे उसके एक पुत्र होगा, परन्तु पत्नी को गर्भावस्था के दौरान धर्म का पालन करना पड़ेगा, सत्य का अचरण, परमात्मा का ध्यान और चिन्तन तथा
सात्विक भोजन करना चाहिये, ऐसा करने से जन्मने वाला बालक
शुद्ध और धार्मिक आचरण वाला होगा"
यहां
महात्मा जी द्वारा ब्राम्हण को बार बार सम्झाया गया कि प्रारब्ध के बिरोध से कष्ट
और अधिक प्राप्त हो सकता है जिसके कारण ही उन्होने ब्राम्हण को ये सलाह दी कि बालक
जब मां के गर्भ में हो उस अवधि के दौरान मां द्वारा पूर्णतया से धर्माचरण किया
जाये तो जन्मने वाला शिशु धर्माचारी, सदाचारी
होता है"
महात्मा
जी आत्मदेव नामक ब्राम्हण को फ़ल देकर चले गये, फ़ल
पाकर ब्राम्हण अत्यन्त प्रसन्नता से अपने घर की ओर चल देता है, घर पहुंचते ही वह फ़ल अपनी पत्नी धुन्धुली को दे देता है और उसे फ़ल तथा
महात्मा जी के पूरे वृत्तांन्त के बारे में बतलाकर स्वयं कहीं चला जाता है I
मनुष्य
जब भौतिकता में मोहित हो जाता है, लोभ और मोह से
ग्रसित हो जाता है तो उसकी बुद्धि धुन्धुली हो जाती है....
आत्मदेव
की पत्नी धुन्धुली अत्यन्त कुटिल स्वभाव की थी उसने अपनी पड़ोस की महिलाओं से फ़ल के
बारे में चर्चा प्रारम्भ करते हुए कहा, "सखी, मैं तो बहुत बड़े संकट में पड़ गई हुं, यदि मैं यह फ़ल खाती हूं तो मैं गर्भवती हो जाउंगी मुझे गर्भवती महिलाओं की
तरह तमाम कष्टों को भोगना पड़ेगा, मेरी शारीरिक शक्ति क्षीण
होने लगेगी, मेरा सौंन्दर्य समाप्त हो जायेगा, घर का कामकाज भी मुझसे नहीं किया जायेगा और हे सखी ऐसी स्थितियों में यदि
नगर में डाकुओं आदि का अक्रमण हो गया गया तो मैं गर्भवती स्थिति में भाग भी नहीं
पाउंगी, और अन्ततः मुझे पुत्र को जन्म देने के लिये प्रसव के
महान भयंकर कष्ट को भोगना पड़ेगा ही और यदि प्रसव के दौरान गर्भ टेढा मेढा हो गया
तो मेरी मृत्यु हो जायेगी.....हे सखी यदि मैं गर्भवती हो गई तो मुझे सहायता के
लिये मेरे पति की बहन आदि मेरे घर आयेंगी मैं स्वयं तो कमजोर अवस्था में रहुंगी
इसका लाभ उठाकर वो मेरे घर का सारा धन आदि समेट ले जायेंगी.....
इस
तरह से वार्ता करती हुई धुन्धुली अत्यंन्त दुखी और चिन्तित हे गई और उसने कहा कि
सिर्फ़ एक पुत्र के लिये मैं इतने कष्टों को नहीं सहन कर सकती और ना ही महात्मा जी
के बताए सत्य और धर्म का पालन ही मुझसे सम्भव है...मैं बिना पुत्र के सुखी हुं
पुत्र जन्म के बाद भी उसके पालन पोषण का झंझट ,,,,नहीं मैं बन्ध्या ही अच्छी हुं...."
आत्मदेव
की पत्नी ने महात्मा जी द्वारा दिया गया फ़ल नहीं खाया,
आत्मदेव जब वापस आये और पत्नी से पूछा तो उसने झूठ कह दिया कि हां
मैंने फ़ल खा लिया है....
एक
दिन का धुन्धुली की बहन उसके घर आई, धुन्धुली
तो पुत्र और फ़ल के विषय के लेकर अत्यन्त चिंन्तित थी ही और चिन्ता के भाव उसके
चेहरे पर पढ कर उसकी बहन ने उससे पूछा, "बहन क्या
तुम्हे कोई समस्या अथवा कष्ट है, मुझे तुम बहुत चिन्तित
प्रतीत हो रही हो"
धुन्धुली
ने बहन के पूछने पर फ़ल महात्मा और सन्तान के विषय के सारे वृत्तांत को अपनी बहन से
विस्तार से कह सुनाया तथा बहन से प्रश्न किया, "हे बहन अब मेरी सारी समस्या तो तुम समझ गई हो अब तुम ही बताओ आखिर मैं
क्या करूं"
बहन
ने धुन्धुली की सारी बात सुनी और वह धुन्धुली से बोली,
"बहन तुम चिन्ता मत करो मैं गर्भवती हूं मैं प्रसव के पश्चात
इसे तुम्हे दे दुंगी, तब तक तुम बस गर्भवती का ढोंग करती रहो,
इसके बदले में तुम मेरे पति को कुछ धन दे देना और मेरे पति हमारे
प्रस्ताव को मान लेंगे"
धुन्धुली
की बहन भी धुन्धुली से कम नहीं थी उसने मौके की नजाकत का पूरा लाभ उठाते हुए
धुन्धुली से धन लेने का अवसर चतुरता से भुनाया I
धुन्धुली
ने अपनी बहन के प्रस्ताव को तुरन्त मान लिया और महात्मा द्वारा दिये फ़ल को अपने
यहां पली हुई गाय को खिला दिया I
समय
व्यतित होता गया अन्ततः धुन्धुली की बहन को पुत्र हुआ और उसने वह पुत्र धुन्धुली
को दे दिया आत्मदेव को जब यह समाचार मिला कि उसकी पत्नी को पुत्र हुआ है तो वह
अत्यन्त प्रसन्न हुआ, अनन्द उत्सवादि
मनाये गये.....
आत्मदेव
ने अपने पुत्र का नाम धुन्धकारी रख दिया.........
आत्मदेव
की यह कथा आप मनुष्य की कथा है, मनुष्य जब
इन्द्रियों के स्वभाव में फ़ंस जाता है मोह और लोभ से गृसित हो जाता है तो उसकी
बुद्धि भी धुन्धुली हो जाती है, और जब बुद्धि धुन्धुली हो
जाये उसे किसी सन्त का सत्संग ना मिले तो वह भौतिकता में अन्धी होकर अविवेक को
जन्म देती है धुन्धुकारी जन्मता है जो अत्मदेव और धुन्धुली की दुर्दशा को द्वार
में पहुंचा देता है,,,,,,
आत्मदेव
सिर्फ़ मोह में गृसित है, परन्तु मलीन बुद्धि
उसे नर्क के गर्त में पहुंचा देती है...
धुन्धुली
ना ही गर्भस्थ हुई थी और ना ही उसे प्रसव हुआ था अतः उसके स्तनों से दुग्ध नहीं
आया अतः उसने अपने पति से कहा कि मेरे स्तनों में दुग्ध नहीं हैं मैं इस बालक को
गाय आदि का दुग्ध पिलाऊं, आप कहें तो मैं कुछ
दिनों के लिये अपनी बहन के बुला लूं उसके भी सन्तान हुई थी परन्तु वह मर गई है,
मेरी बहन का दुख भी कुछ कम हो जायेगा और हमें भी उसके आने से लाभ
मिलेगा वह बच्चे का पालन पोषण कर देगी"
आत्मदेव
के घर पली हुई गाय जिसे धुन्धुली ने महात्मा का दिया फ़ल खिला दिया था उसने भी एक
मनुष्य के बच्चे को जन्म दिया, वह बच्चा
अत्यन्त सुन्दर, तेजवान और कान्ति वाला था आत्मदेव ने उस
बच्चे के सारे संस्कार किये, मन ही मन आत्मदेव महात्मा जी को
प्रणाम कर रहा था कि मेरे घर सन्तान का जन्म होते ही गाय जो आज तक बांझ थी उसे भी
सन्तान और वह भी मनुष्य जैसी, आत्मदेव के घर गाय ने मनुष्य
के जैसे बालक को जन्म दिया है सुनकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था, बालक का पूरा शरीर मनुष्य जैसा था सिर्फ़ उसके कान गाय से थे अतः बालक का
नाम आत्मदेव ने गोकर्ण रख दिया तथा गोकर्ण का पालन आत्मदेव ने अपने पुत्र के समान
ही किया I
समय व्यतीत होता गया,
दोनो बालक बड़े होने लगे, गोकर्ण बहुत ज्ञानी
पण्डित और धर्मवान हो गया, जब कि धुन्धकारी क्रोधी, व्यसनी और
दुराचारी हो गया....
दुसरों
का धन चुरा लेना, झगड़ा करना, क्रोध करना, सुरापान आदि उसकी आदतें थीं जब कि
गोकर्ण अत्य्नत मधुर स्वभाव वाला था.....
धुन्धुकारी कामी था और वह वैश्याओं के चक्कर
में पड़ गया उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति को अपने व्यसनों में समाप्त कर दिया
तथा एक दिन जब धन नहीं बचा तो उसने अपने माता पिता को बहुत पीटा तथा उनके घर से
समस्त बर्तन आदि बेचने के लिये उठा ले गया, माता
पिता दुख से व्यथित होकर विलाप करने लगे और कहने लगे कि हम बिना सन्तान ही सुखी थे
हमारी बुद्धि मलीन हो गई थी जो हमने पुत्र की कामना की थी, उसी
कामना के कारण आज हम इस दुख के प्राप्त हुए हैं अब हमारे इस संकठ से हमें कौन
उबारेगा, अब हम कहां जायें कहां रहें ?
उसी समय गोकर्ण जी का आगमन होता है और
उन्होने अपने पिता को ज्ञान और वौराग्य का उपदेश दिया,
गोकर्ण जी ने पिता से कहा, "यह संसार
सिर्फ़ एक भृम जैसा है, जिसमें मोह में गृस्त मनुष्य दुःख को
प्राप्त हो जाते हैं मनुष्य मोह वश निशा में जलने वाले दीपक के समान व्यथित रहता
है परन्तु यह धन यह पुत्र किसी का नहीं है, सुख ना तो इन्द्र
को प्राप्त हुआ है ना चक्र्वर्ती सम्राट को यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा का है
इसमें मोह करने से कष्ट प्राप्ति होती है जबकी संसार परमात्मा का है ऐसा भाव रखने
वाले ही इस संसार में सुखी हैं, चूंकि यह शरीर तो नष्ट होना
ही है अतः इस संसार से विरक्ति का भाव होना चाहिये और आपको वन की ओर प्रस्थान करना
चाहिये, और गोकर्ण जी ने अपने पिता को वैराग्य रस में रहकर
किस तरह परमात्मा की भक्ति करनी चाहिये विस्तार पूर्वक यह उपदेश दिया,,,,
पुत्र
की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव वन की यात्रा पर चले जाते हैं I
कथा
के इस प्रकरण में यह तत्व ज्ञान दिया गया है कि इस जीवन में जहां आपका शरीर तक
अपना नहीं है, वहां आप किसे और किसको अपना
अपना कहते हो....आपका
पूर्ण नियंत्रण आपके अपने शरीर पर नहीं है, और
आप जगत के मोह में बंधे बंधे फ़िर रहे हैं, मोह और वासना से
गृसित मनुष्य काल के जाल में फ़ंसते जा रहे हैं ..
इस
संसार में परमात्मा की शरण में रहते हुए, उसका
चिन्तन, भजन करते हुए जीवन को आनन्द उत्सव में परिणित किया
जा सकता है.......
परमात्मा
का भाव से दर्शन और चिन्तन होना चाहिये ....
भाव
से चिन्तन करते हुए हृदय दृवित हो जाये आंखें गीली हो जायें,,,,,,,,
हृदय
में परमात्मा प्रतिष्ठापित हो जाये वह जीवन ही जीवन है..........
इसीलिये
तो लिखा है.....
पुनरपि
जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम,,,
भज
गोविन्दम,
भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते !
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