प्रिय पाठकों आप सभी नें
श्रीमदभागवत जी के महत्म्य के पंचम अध्याय में हार्दिक स्वागत है, चौथे अध्याय में आपने पढा कि धुन्धुकारी ने वैश्याओं के वासनात्म भोग में
लिप्त होकर अपने पिता का समस्त धन बर्बाद कर दिया और धन के अभाव में घर के बर्तन
बेचने के लिये लेकर चला गया साथ ही उसने अपने माता पिता को पीटा भी, गोकर्ण जी के ज्ञान उपदेश से प्रभावित होकर उनके पिता आत्मदेव वन को चले
जाते हैं परन्तु उनकी माता धुन्धुली अपने घर पर ही रहती है, आगे
का वत्तांन्त ये हैं कि पिता के बन चले जाने के बाद एक दिन धुन्धुकारी ने विचार
किया कि पिता जी तो बन को चले गये हैं परन्तु मेरी मां पिता के साथ वन नहीं गई है,
धुन्धुकारी अपनी माता के स्वभाव के विषय में जानता था उसने विचार
किया कि उसकी माता बहुत लोभी है निश्चित ही इसने अपने बुरे समय के लिये कुछ धन
छिपा कर सुरक्षित कर रक्खा है तभी यह पिता के साथ वन को नहीं गई हैं, इस विचारधारा से धुन्धुकारी ने अपनी माता से धन के बारे में पूछा परन्तु
माता द्वारा धन होने से इन्कार करने पर धुन्धुकारी ने अपनी मां को बहुत बुरी तरह
पीटा और यह कहा कि अगर शीघ्र धन का पता नहीं बताया तो जलती लकड़ी से उसे पीटेगा,
नतीजा उसकी मां डरकर भागी और कुंए में गिरने से उसकी मृत्यु हो गई,
जिस धन से धुन्धुली को बहुत प्रेम था वही उसके लिये कष्ट का करण बन
गया, इसीलिये सन्त कहते हैं कि माता पिता सन्तान को कुछ धन
सम्पदा दें अथवा ना दें परन्तु उन्हें सन्तान को संस्कार आवश्य देने चाहिये जिससे
उन्हें भविष्य में कष्ट ना सहना पड़े,
माता
की मृत्यु के बाद अपने भाई के आचरण से दुखी गोकर्ण भी तीर्थ यात्रा पर चले गये,
इधर धुन्धुकारी अपने घर में पांच वैश्याओं के साथ रहने लगा, मनुष्य जब वासनाओं में अधोगामी हो जाता है उसका विवेक क्षीण हो जाता है तो
उसको उसकी पांचो इन्द्रियां अपना गुलाम बना लेती हैं, वही
पांचो इन्द्रियां वैश्याएं बनकर उसके साथ निवास करने लगीं, उनके
भरण पोषण के लिये धुन्धुकारी के पास धन का अभाव था इन्द्रियां अपने लिये भोग की
मांग करती हैं सो वैश्याएं धुन्धुकारी से गहने और अच्छे वस्त्रों आदि की मांग करती
थीं, और इसी कारण धन के लिये धुन्धुकारी ने राजकोष में चोरी
की और बहुत सा धन लेकर घर आया,.....
बहुत अधिक मात्रा में धन
देखकर पांचो वैशयाओं के मन में मलीनता आ गई पाप आ गया, उन्होंने
आपस में विचार किया कि ये धन राजा के खजाने से चुराया गया है यदि धुन्धुकारी चोरी
के अपराध में पकड़ा गया तो राजा धन का अधिग्रहण तो करेगा ही साथ ही वैश्याएं भी सजा
की भोगी हो सकती हैं सो उन्होने आपस में सलाह की और मिलकर धुन्धुकारी की हत्या
करने की योजना बनाई, उन्होने धुन्धुकारी के गले में रस्सी से
फ़ंदा लगा कर उसे मारने का प्रयास किया, परन्तु वह जल्द मरा
नहीं तो वैश्याओं को चिन्ता हुई उन्होंने धुन्धुकारी के मुंह में दहकते अंगारे डाल
दिये जिससे वह दहकती अग्नि से पीड़ित होकर मर गया, वैश्याओं
ने धुन्धुकारी के शव को धरती में गड्ढा करके गाड़ दिया और उसका सारा धन लेकर
वैश्याएं भाग गईं, मनुष्य इन्द्रियों की मांगों की पूर्ति के
लिये पूरे जीवन प्रयास करता रहता है, उसके लिये अनुचित
तरीकों और अधर्म करने से भी नहीं चूकता, परन्तु वही
इन्द्रियां मनुष्य की दुर्दशा का हेतु बन जाती हैं I
कथा
कहती है कि धुन्धुकारी मृत्यु के बाद मुक्त नहीं हुआ और वह प्रेत योनि में भटकने
लगा,
वृत्तांन्त यह है कि कुछ काल बीत जाने पर गोकर्ण जी तीर्थयात्रा से
वापस आये और अपने घर पहुंचे, गोकर्ण जी को तीर्थयात्रा के
दौरान धुन्धुकारी तथा धुन्धुली की म्रुत्यु की सुचना मिल चुकी थी इस करण से वो जिस
तीर्थ क्षेत्र में जाते वहां अपनी मां और भाई की आत्म शान्ति के लिये श्राद्ध आदि
आवश्य करते, उन्होने गया तीर्थ में भी श्राद्ध किया....
परन्तु
जब रात्रि में गोकर्ण जी अपने घर में सो रहे थे उस समय धुन्धुकारी भयंकर रुप में
वहां प्रकट हुआ उसकी दुर्गती देख कर गोकर्ण जी ने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गती
को प्राप्त हुआ जीवन है जो मृत्यु के बाद भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाय और भटक
रहा है,
अतः गोकर्ण जी ने प्रेत से पूछा कि तुम कौन हो और किस कारण से
तुम्हे यह दुर्गती प्राप्त हुई है....
गोकर्ण
जी के पूछने पर वह प्रेत रोने लगा उसने बताया कि वह उसका भाई धुन्धुकारी है उसने कहा, "मैंने अपने किये पापों और कुकर्मों से अपने ब्राम्हणत्व को दूषित किया था
मैं तो बहुत गहन अज्ञान में फ़ंसा था मेरे हिंसक कर्मों की गिनती नहीं की जा सकती है, और अन्ततः
मैं वासना में फ़ंस कर जिन वैश्याओं की तृप्ति के लिये अधर्म कर रहा था उन्होने ही
मुझे तड़्पा-तड़्पाकर मार डाला जला दिया, इसी कारण मैं प्रेत
योनी में भटक रहा हूं",,,,
इतना
कहकार धुन्धुकारी ने गोकर्ण से निवेदन करते हुए कहा कि आप धर्मशील और परम ज्ञानी
हैं मुझपर कृपा करो मुझे इस योनि से मुक्ति दिलाओ मुझे बहुत कष्ट है....
धुन्धुकारी
के वचनो को सुनकर गोकर्ण जी ने कहा, "मुझे तुम्हारी और मां की मृत्यु का समाचार तीर्थयात्रा के दौरान ही मिल गई
थी मैंने तुम्हारी मुक्ति के हेतु से गया सहित सभी तीर्थों में श्राद्ध आदि किया
परन्तु तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई मुझे इस बात का बहुत आश्चर्य हो रहा है...
इतनी बात सुनकर प्रेत बोला,
"मेरी मुक्ति सौकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती
हमारी मुक्ति के लिये तुम्हें कोई अन्य उपाय करना पड़ेगा"
प्रेत की बात सुनकर गोकर्न जी ने प्रेत को
निर्भय किया कि वो उसकी मुक्ति के लिये कोई उपाय आवश्य करेंगे....
प्रातः काल लोगों को यह जानकारी हुई कि
गोकर्ण जी तीर्थयात्रा से वापस आ गये हैं सो उनसे मिलने के लिये बहुत से लोग आये,,,
जो मनुष्य जैसे स्वभाव और आचरण का होता है
उसके सम्बन्ध भी वैसे मनुष्यों से होते हैं सो गोकर्ण जी से मिलने आने वालों में
परम ज्ञानी, विद्वान, योगी
वेदज्ञ और भक्त जन थे गोकर्ण जी ने रात्रि का पूरा वृत्तांन्त सभी के मध्य बताया,
सभी ने शास्त्रों में उपाय खोजे परन्तु उन्हे सफ़लता नहीं मिली सो
सभी ने यह निर्णय लिया कि इसके लिये सूर्य देव से प्रार्थना की जाय उनकी
आज्ञानुसार ही उपाय किया जयेगा...
सभी ने संयुक्त भगवान भास्कर की स्तुति की
परिणामतः सुर्य देव ने सांकेतिक आदेश किया कि, श्रीमदभागवत
जी का सप्ताह पारयण ज्ञान यज्ञ के द्वारा ही मुक्ति संभव है"
गोकर्ण
जी ने सभी विद्वानों आदि से सलाह लेकर कथा का अर्थात श्रीमदभागवत जी का सप्ताह
पारयण ज्ञान यज्ञ करने का समय निश्चित कर लिया I
कथा के
आयोजन की सूचना चारों ओर फ़ैल गई दूर दूर से भक्त, ज्ञानी कथा का श्रवण करने के लिये एकत्र होने लगे, उस
काल में यातायात आदि के साधनों का अभाव था इस कारण लोगों को नित्य आना जान सुलभ
नहीं था इसलिये दूर स्थानों के निवासी लोग कथा श्रवण के लिये प्रवास करते थे कथा
में ऐसा वर्णन है कि कथा के श्रवण के लिये श्रद्धालुओं की इतनी भीड़ एकत्र हो गई कि
देवताओं को भी आश्चर्य होने लगा I
व्यास गद्दी पर गोकर्ण जी विराजमान हुए और
कथा प्ररम्भ हुई, प्रेत रूप में
धुन्धुकारी भी कथा श्रवण हेतु वहां आ गया और कथा स्थल पर अपने बैठने के लिये स्थान
तलासने लगा परन्तु प्रेत चूंकि वायु रूप में था उसका कोई भौतिक आकार नहीं था
इसलिये वह कहीं स्थिर नहीं हो पा रहा था, प्रेत को कथा स्थल
पर रखा एक बांस दिखाई पड़ गया बांस बहुत बड़ा नहीं था हां सात गांठें थी उस बांस में
, बांस आप सभी ने आवश्य देखा होगा बांस भीतर से खोखला होता
है परन्तु उसका अन्दर का खोखला भाग बीच बीच में गांठ वाली जगह से बन्द होता है इसी
तरह के सात गांठों वाले बांस के नीचे से खोखले खुले भाग में प्रेत घुस गया और वहीं
से उसने पहले दिन की कथा श्रवण की,,,,,,
सायंकाल जब प्रथम दिवस की कथा ने विश्राम
लिया तो बहुत आश्चर्य चकित करने वाली बात हुई, सात
गांठों वाले बांस में सबसे नीचे के खोखले भाग में बैठकर प्रेत ने कथा सुनी कथा के
विश्राम के समय बांस की सबसे नीचे वाली गांठ तड़-तड़ की आवाज के साथ फ़ट गई जिससे
प्रेत बांस के सबसे नीचे वाले भाव से ऊपर वाले भाग में प्रवेश कर गया, इसी तरह दूसरे दिन की कथा के विश्राम के समय दूसरी गांठ फ़ट गई तीसरे दिन
तीसरी और कथा के सातवें दिन पूर्णाहूति के समय बांस की सातवीं गांठ फ़टी और प्रेत
बांस के ऊपरी भाग से मुक्त होकर प्रकट हुआ भागवान के पार्षद जिस वेश में रहते हैं
उसी वेष में धुन्धुकारी प्रकट हुआ, सुन्दर शरीर पीताम्बर
धारण किये हुए कानों में कुण्डल सुशोभित हो रहे थे, सिर पर
सुन्दर मनोहर मुकुट शोभायमान हो रहा था, धुन्धुकारी ने अपने
भाई गोकर्ण को प्रणाम किया और बोला, "भाई आपने मुझे
प्रेत योनी की यातनाओं से मुक्त कर दिया है यह भागवत कथा धन्य है जो पापों को
जलाकर नष्ट कर देती है"
कथा
के इस प्रभाव के देख कर समस्त पाप थर्थराने लगे, कथा का तत्व ज्ञान यह संकेत करता है कि भागवत कथा मनुष्य के समस्त बंधनों
से मुक्ति प्रदान कराती है, मनुष्य काम क्रोध आदि सात बंधनों
में फ़ंसा है जिनसे यह कथा मुक्ति प्रदान करा देती है, मनुष्य
इस अनित्य शरीर के मोह में बंधा रहता है कौन से शरीर के मोह में जो अनित्य है,
जिसकी स्थिति का कोई निश्चय नहीं है, जो
नाशवान है नित्य मृत्यु की ओर बढ रहा है, उस शरीर को खिला
पिला कर मनुष्य मजबूत बनाने में लगा रहता है जब कि वह भलीभांति जानता है कि
"आखिर यह तन खाक मिलेगा" जानता
है परन्तु मानता नहीं है, यही है मोह जो सदैव
नहीं रहता है उस शरीर को मजबूत बनाने में लगा है और परमात्मा की कथा नहीं सुनता
......
जगत
में मनुष्य फ़ंसा है जगदीश से उसे कोई लगाव नहीं है......
यह
शरीर जिसका आधार इसकी हड्डियां हैं, नस
नाड़ी रूपी रस्सियों से ये बंधा हुआ है, इस पर मांस थोप दिया
गया है रक्त भर दिया गया है और ऊपर से इसे खाल से मढ दिया गया है, इसके हर हिस्से से बदबू आती है, यह मल मूत्र का
भण्डार ही तो है, बृद्धावस्था में ये शरीर दुख का कारण बन
जाता है जब इसे तमाम रोग घेर लेते हैं यह शरीर निरन्तर कामनाओं से गृसित रहा,
इसे कभी तृप्ति नहीं मिली,,,,
जिस
अन्न से शरीर की पुष्टि करते हैं मनुष्य वह भोजन सुबह पकाया जाता है,
शाम तक यदि वह भोजन बचा रहे तो वह खराब हो जाता है तो फ़िर उस अन्न
से पुष्ट होने वाला शरीर कैसे सदैव कायम रह सकता है,,,,,,
परमात्मा की कथा भक्ति और श्रद्धा पूर्वक
श्रवण करने से परमात्मा के प्रति समर्पण का प्राकट्य हो जाता है और कानों से
परमात्मा की कथा हृदय में प्रवेश करती है जिससे मनुष्य का हृदय पवित्र हो जाता है
उसके जन्म-जन्मान्तर के किये पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं पूरे शरीर का पवित्रीकरण
हो जाता है भक्ति देवी मनुष्य की चित्त वृत्तियों को पवित्रतम कर देती हैं ज्ञान
और वैराग्य का जन्म हो जाता है, मनुष्य स्वयं
परमात्मा के गुणों से युक्त हो जाता है और परमानन्द की उच्च अवस्था में स्थापित हो
जाता है, सभी प्रकार की वासनाओं, कामनाओं,
तृष्णाओं आदि से मुक्त ब्रम्हानन्द की स्थिति में स्थापित हो जाता
है I
कथा के पूर्णाहूति के पश्चात धुन्धुकारी को
लेने के लिये एक विमान से भगवान के पार्षद आये, धुन्धुकारी
विमान में चढ गया, तभी गोकर्ण जी ने भगवान के पार्षदों से
कहा, "हे भगवान के प्रिय पार्षदों यहां इस
पुण्यप्रदायिनी कथा का श्रवण बहुत से लोगों द्वार किया गया है फ़िर आप सिर्फ़ एक
विमान लेकर क्यों आये?"
गोकर्ण जी की बातें सुनकर पार्षदों ने कहा,
"यह तो कथा श्रवण के भेद का प्रभाव है, ये
सत्य है कि कथा का श्रवण सभी ने किया है, परन्तु धुन्धुकारी
जैसा कथा का मनन किसी ने नहीं किया, धुन्धुकारी ने
परमरकाग्रता की अवस्था में कथा का श्रवण किया है, निराहार
रहते हुए कथा का श्रवण किया है और हृदय के पूर्ण समर्पित भाव से कीर्तन किया है,
धुन्धुकारी की कथा श्रवण की जो परम स्थिति थी उसके कारण यह फ़ल
उन्हें प्राप्त हो रहा है, यह भी सत्य है कि बाकी सभी
श्रोताओं ने भी भक्ति पूर्वक कथा श्रवण की है परन्तु धुन्धुकारी के समान समर्पित
और पवित्र हृदय से श्रवण उन्होने नहीं किया है, परन्तु यदि
निरनतर भक्त परमात्मा की कथा के रस का श्रवण करते रहेंगे तो बाकी सभी को भी यह चरम
अवस्था की प्राप्ति आवश्य होगी, और उन्हे भी भक्ति द्वारा
मुक्ति की प्राप्ति होगी"
ऐसा
कहते हुए भगवान के पार्षद धुन्धुकारी को विमान द्वारा लेकर वैकुण्ठ चले गये...
कथा
इस प्रकार कहती है कि उसके बाद सावन के महिने में गोकर्ण जी ने पुनः श्रीमदभागवत
जी ज्ञान-भक्ति सप्ताह यज्ञ का आयोजन किया, सभी
श्राताओं ने भाव भक्ति से परमात्मा की कथा का श्रवण किया, कथा
की पूर्णाहूती के पश्चात बहुत से विमान प्रकट हुए स्वयं परमात्मा का भी प्राकट्य
हुआ, भगवान द्वारा पांन्चजन्य नामक शंख की ध्वनि की गई,
भक्तों ने परमात्मा की जय जयकार का घोष किया, भगवान
ने गोकर्ण जी को अपने हृदय से लगा लिया, गोकर्ण जी तथा सभी
भक्तों का स्वरूप परमात्मा के समान हो गया तथा सभी विमानों में सवार होकर वैकुण्ठ
को चले गये..
ऐसा कहते हुए सनकादि,
नारद जी से बोले, "नारद जी जिन श्रोताओं
ने गोकर्ण जी के मुख से भागवत जी की कथा का एक शब्द भी सुना था वो सभी मुक्ति को
प्राप्त हुए उन्हे पुनः इस मृत्यु लोक में जन्मना नहीं पड़ा, जिस
उच्च फ़ल को प्राप्त करने के लिये योगी परम तप करते हैं भूखे रहते हैं पत्ते खाकर
घोर तपस्या करते हैं, योगाभ्यास करते हैं वह फ़ल भागवत जी की
कथा का श्रवण करने से प्राप्त होता है, इस कथा के श्रवण से
समस्त संचित पाप जलकर भस्म हो जाते हैं, यह कथा परम पवित्र
है इसके श्रवण से पित्रगणों की भी तृप्ति होती है"
कथा में गूढ तत्व ज्ञान छिपा है,
कथा में कहा गया कि गोकर्ण जी के द्वारा कथा श्रवण करके सभी भक्तों
का स्वरूप परमात्मा के जैसा हो गया, यहां कहने का तात्पर्य
यह है कि जब मनुष्य भक्ति-भाव से पूर्ण समर्पित होकर परमात्मा की कथा का श्रवण
करता है तो वह पूर्ण पवित्र हो जाता है उसका हृदय निर्मल हो जाता है, वासना-कामना, ईर्ष्या-द्वेष, आदि
का समापन हो जाता है और वह परमात्मा के समान सत-चित-आनन्द स्वरूप हो जाता
है.......
बोलिये श्री कृष्ण चन्द्र,
माखन चोर रसिया की जय जय जय......
इस
कथा के माध्यम से बहुत सहजता और सरसता से अध्यात्म को समझाने का एक सफ़ल प्रयास
किया है भागवतकार ने ....
आत्मदेव
की कथा इस धरती पर जन्में प्रत्येक मनुष्य की कथा है,
प्रत्येक मनुष्य जो जन्मता है उसकी आत्मा अत्यन्त पवित्र होती है,
परन्तु भौतिक जगत में वह जब भौतिकता और इन्द्रियों की जकड़ में फ़ंस
जाता है तो उसकी बुद्धि धुन्धली हो जाती है और वह अपनी आत्मा की आवाज नहीं सुन
पाता, इन्द्रियों की तृप्ति के प्रयास में भटकता रहता है और
उसकी धुन्धली बुद्धि उसके पतन का कारण बन जाती है,
धुन्धकारी
जो जगत की भौतिकता में निरन्तर द्र्व्य सुख और कामसुख के लिये चिन्तन और प्रयास
करता रहता है, और अन्ततः वह पांच वैश्याओं
अर्थात शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में फ़ंस जाता है और वही इन्द्रियां उसकी दुर्गती का कारण
बन जाती हैं .....
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