रविवार, 26 जुलाई 2015

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (दशमोsध्याय) श्रीकृष्ण का द्वारका गमन



मित्रों जय श्री कृष्ण, हम सभी का परम सौभाग्य है कि हम सभी परमात्मा की रसमय कथा में लीन हैं हम सभी पर अकारण करुणा-वरूणालय की कृपा है तभी तो वो मुझसे लिखवा रहा है और आपसे पढवा रहा है,,,,,,

नवम अध्याय की कथा का अपने रसास्वादन किया नवम अध्याय में परमात्मा ने बहुत सुन्दर शिक्षाएं प्रदान की हैं हम लोगों को,  पहला तो यह कि पितामह बांणों की सैया पर लेटे हैं असहनीय पीड़ा से गृसित हैं परन्तु ऐसे समय में भी पितामह के पास ऋषि-मुनि, भक्त आदि एकत्र हैं सत्संग हो रहा है, परमात्मा का चिंन्तन हो रहा है, और स्वयं परमात्मा उन्हें दर्शन देने आये, और पितामह को अपने कष्टों का दुख नहीं है उन्हें आनन्द यह है कि गोविन्द उन्हें दर्शन देने आये, इस घटना से यहां तत्व ज्ञान का संदेश मिलता है कि हमें अपने दुखों को कमियों को महत्व नहीं देना चाहिये बल्कि सकारात्मक सोच के द्वारा सिर्फ़ परमात्मा की कृपा का अनुभव करना चाहिये और परमात्मा से निवेदन कर जाने-अनजाने अपने किये अशुभ कर्मों के लिये क्षमा मांगनी चाहिये, प्राश्चित करना चाहिये, जब कि होता यह है कि हम विपदा पड़्ते ही, कष्ट होते ही परमात्मा को दोष देना चालू कर देते हैं, जब कि हमें कष्ट अथवा सुख जो भी मिल रहा है वह हमारे द्वारा पूर्व किये कर्मों के फ़लस्वरूप प्राप्त हो रहा है, प्रायः एक जरा सी चीज का अभाव होने पर हम परमात्मा को दोष देते हैं जब कि अन्य प्राप्त चीजों के लिये हम परमात्मा को धन्यवादं नहीं देते, हमें परमात्मा को अपना सम्बन्धी बनाना चाहिये और उससे सम्बन्ध प्रगाढ करना चाहिये I

युधिष्टिर द्वारा राजपाठ ग्रहण करने के बाद कृष्ण कई महिने हस्तिनापुर में रहे, फ़िर एक दिन कृष्ण नें युधिष्टिर से द्वारका जाने की अनुमति मांगी, कृष्ण छोटे हैं युधिष्टिर जी से प्रणाम करते हैं कृष्ण युधिष्टिर जी को तभी तो उनसे अनुमति मांग रहे हैं, युधिष्टिर ने प्रसन्नता पूर्वक कृष्ण को अनुमति प्रदान की, भगवान कृष्ण के द्वारका जाने के लिये तैयारियां प्रारम्भ हो गईं, भगवान को राजा युधिष्टिर नें गले से लगाया, सभी पांडव कृष्ण से मिले, द्रोपदी-सुभद्रा कुन्ती गान्धारी आदि सभी के हृदय दृवित हैं सभी भगवान को बिदा करते समय दुखी हैं,  परन्तु यात्रा से पूर्व अपसगुन ना हो इसलिये कोई रोया नहीं और मुस्कुराते हुए भगवान को बिदा करना है, सभी के हॄदय दृवित थे, भगवान के बिदाई समारोह में शंख, मृदंग, वीणा, ढोल आदि बजाए जाने लगे, भगवान की स्तुतियां गाई जा रही थीं, भग्वान पर पुष्प वर्षा की जा रही थी, भगवान कृष्ण मोर मुकुट लगाए हैं उनके घुंघराले बालों की लटें उनके मुखारबिंद के दोनो तरफ़ झूल रही हैं, भगवान मुस्कुरा रहे हैं, सभी का अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं भगवान, को बिदा करने के लिये महाराज युधिष्टिर ने अर्जुन को कहा कि सेना के साथ जाओ और द्वारिका की सीमा तक कृष्ण को छोड़ आओ, भील आदि जन जातियां रास्ते में रहती हैं अतः अर्जुन को कृष्ण की सुरक्षा के लिये साथ भेज रहे हैं युधिष्टिर…….

युधिष्टिर कृष्ण से वात्सल्य भाव रखते हैं उन्होने बाल कृष्ण को गोद में खिलाया है अतः आज भी उन्हें कृष्ण छोटे ही दीखते हैं, जिसने कौरवों की सेना को सिर्फ़ रथ हांकते हांकते हरा दिया उसे महाराज युधिष्टिर आज भी छोटा समझते हैं, कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं युधिष्टिर को देख रहे हैं, भगवाम कृष्ण, उद्धव- सात्यकी के साथ द्वारिका के लिये प्रस्थान कर रहे हैं I

हस्तिनापुर के नर, नारी, बालक, वृद्ध सभी भगवान को बिदा करने के लिये एकत्र हैं, परमात्मा सबसे मिल रहे हैं सभी दुखी हैं सभी के हॄदय दृवित हैं भगवान रथ पर चढने से पूर्व महाराज युधिष्टिर से मिलते हैं युधिष्टिर जी का हृदय करुणा से भर आया, गला रुंध गया, शब्द मुंह से नहीं निकाल पाए, भीम भैया से कृष्ण की बहुत प्रीति थी कृष्ण भीम भैया से हास्य भी बहुत करते थे, भीम को कृष्ण ने प्रणाम किया भीम बहुत कठोर हृदय हैं परन्तु जब कृष्ण ने  मुस्कराते हुए भीम भैया की अओर देखा तो भीम का हृदय भर आया, नकुल सहदेव भी दुखी थे कृष्ण को बिदा करते हुए I

हस्तिनापुर के नागरिक भगवान की स्तुति कर रहे हैं, एक  महिला दूसरी स्त्री को बता रही है कि यही हैं कृष्ण सुभद्रा जी के भाई हैं राजमाता कुन्ती के भाई के बेटे हैं इन्होने युद्ध में अर्जुन का रथ हांका था I

दूसरी स्त्री कहती है हां हां मैं भली भांति जानती हुं ये वही हैं जो वृन्दावन में गोपियन संग रास रचाते थे, मथुरा के कंस महाराज को इन्हींने मारा था, अब द्वारकाधीश हैं I

तीसरी स्त्री कहती है नहीं नहीं तुम ना जानो ये परमात्मा है जगत के मालिक हैं ये, द्रोपदी की लाज जब दुःशासन उतार रहा था, इन्हीने तो बचाई थी महारानी द्रोपदी की लाज……
     
 चौथी कहती है, देखो तो रूप ऐसा लगता है जैसे कामदेव से भी सुन्दर हैं, मुंख की मुस्कान तो देखो मानो प्राण ही ले लेंगे, कितनी सौभाग्यशाली हैं वो स्त्रियां जो इनकी रानी बनी हैं …….

एक स्त्री पुनः बोल पड़्ती है, अरी तुम का जानो, ये तो शिशुपाल आदि बहुत बलशाली राजाओं को हरा के अपने बल पर रूक्मणी जी को हरण कर अपनी रानी बना लाये थे, इनकी आठ पटरानी हैं और सोलह हजार रानी हैं जिन्हें ये भौमासुर के कैद से छुड़ा के लाये थे, भौमासुर को इन्होने जब मार दिया और उसके कैदखाने से सोलह हजार स्त्रियों को मुक्त करा दिया, जब सोलह हजार स्त्रियां मुक्त हो गईं तो उन्होने इनसे पूछा कि हमें आपने आजाद तो करा दिया परन्तु एक बात बताइये हमें भौमासुर हरण करके लाया था हमें उसने कैद में रक्खा था, हम इतने समय से भौमासुर की कैद में हैं और यहां से मुक्त होने के बाद हमें कौन अपने घर रखेगा, हमारे साथ सम्बन्ध कौन रखेगा, हमारी देखभाल कौन करेगा अब तो हम बेसहारा होकर इधर उधर भटकती रहेंगी, आप ही बताइये हमारे साथ क्या कोई विवाह करेगा, कौन हमारा जीवन साथी बनेगा,,,,,हे सखी ये वही हैं जिन्होंने उन सोलह हजार स्त्रियों से विवाह कर लिया जिन्हे भौमासुर की कैद से छुड़ाया था, ऐसे कृपा और करुणा के सागर हैं ये श्याम सुन्दर..


कृष्ण रथ पर चढ गये हैं रथ चल पड़ा है भगवान रथ पर खड़े होकर सभी का अभिवादन मुस्कुराते हुए स्वीकार कर रहे हैंनगर के नागरिक रथ के पीछे पीछे भगवान को विदा करने नगर की सीमा तक जाते हैं भगवान ने नगर की सीमा पर रथ रुकवया, सभी को भगवान ने समझा बुझा कर वापस भेजा दिया……

शनिवार, 25 जुलाई 2015

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (नवम अध्याय) भीष्म उपदेश व मोक्ष


     मित्रों जय श्री कृष्ण, अष्टम अध्याय में आपने कुन्ती के परमात्मा से प्रेम के रसमयी प्रकरण को सुना समझा और मनन किया, आप सभी बहुत ही भाग्यशाली हैं जो करुणासागर श्रीकृष्ण की लीलाओं का रसास्वादन कर रहे हैं, कुन्ती ने परमात्मा से मांगा कि हमारे जीवन में निरन्तर विपत्तियां आती रहें क्यों कि विपदाओं में निश्चित रूप से परमात्मा का चिन्तन होता है, दर्शन होता है, दुख की स्थिति में मनूष्य परमात्मा के निकट पहुंच जाता है, कारण जब दुख का समय होता है तो जितने भौतिकवादी जगत के सम्बन्धी होते हैं वह हमसे दूर रहते हैं, और तो और विपत्तियों के समय हम स्वयं भोग से दूर रहते हैं अतः परमात्म चिन्तन अधिक हो पाता है दुख में भगवान के पास जाने का मन करता है, सुख के समय तो समय ही नहीं होता है परमात्मा के पास जाने का……
   
   भगवान कृष्ण कहते हैं, “बुआ क्या मांग रही हो, आपकी बुद्धि तो नहीं चकरा गई हैबुआ,, जब से तुमने जन्म लिया तब से क्या सुख मिला है तुमको, जन्म के बाद तुम्हारे पिता के घर को तुम्हें त्यागना पड़ा था, तुम्हारे पिता ने तुम्हें राज कुन्ती भोज को गोद दे दिया था, और जब विवाह हुआ तो पति मिले पांण्डु अर्थात पीलिया के रोगी, और उस पर भी उन्हें श्राप मिला कि जब भी विषय-वासना की कामना से पत्नी के पास जायेगे उनकी तुरन्त मृत्यु हो जायेगी, माता-पिता के घर सुख नहीं मिला, पति के घर सुख नहीं मिला और तो और पति जब एक दिन जब अचानक अपनी दूसरी पत्नी के साथ भोग करने की कामना कर उसी समय उनकी मृत्यु हो गई, पति की मृत्यु के बाद जो कष्ट आपने भोगे उनके बारे में विचार करने से मनुष्य डरता है, कभी आपके बेटों को जहर देकर मारने का प्रयास किया गया, कभी लाक्षागृह में पुत्रों को जलाकर मारने का प्रयास किया गया, कभी वनबास हुआ, कभी अज्ञातवास तो कभी दुशासन बहूं को हाथ पकड़कर खींचता हुआ लाता है और उसे दरवार में सबके सामने निःवस्त्र करने का प्रयास करता है एक पौत्र था अभिमन्यू उसे युद्ध में मार दिया गया, पांच अन्य पौत्रों को सोते में छल से अश्वत्थामा ने मार दिया…. कृष्ण कहते हैं बुआ, आपको जीवन में सिर्फ़ दुःख ही दुःख तो मिले हैं और आज फ़िर दुःख मांगती हो, कृष्ण बुआ से लिपट जाते हैं बुआ कितना प्रेम है आपको मुझसे मेरे स्मरण मेरे दर्शन के लिये दूःख मांगती हो, सिर्फ़ इसलिये दुख मांग रही हो कि तुम्हें मेरी याद आती रहे, परमात्मा तो प्रेम का भूखा है सो कुन्ती से लिपट जाते हैं कृष्ण, बुआ भतीजे दोनो के नेत्र अश्रुओं से भर जाते हैं,,,,,,,
    
     कुन्ती से प्रेमालाप होने के बाद कृष्ण ने द्वारिका जाने का कार्यक्रम बदल दिया, और पांडवों के साथ पितामह भीष्म के दर्शन को चल देते हैं…..
    
     भीष्म परमात्मा के अनन्य भक्त हैं सो परमात्मा ने लीला करी और कुन्ती को आधार बना कर परमात्मा हस्तिनापुर में रुक जाते हैं परमात्मा के रुकने से सभी लोग प्रसन्न हैं और सभी विचार करते हैं कि परमात्मा उनके कारण रुके हैं जब कि परमात्मा तो सूर्य उत्तरायण के लिये रुके हैं

    परमात्मा की इच्छा है वो भीष्म के अन्तिम समय में दर्शन करना भी चाहते हैं और उन्हें दर्शन  देना भी चाहते हैं परमात्मा की इच्छा है कि भीष्म जब शरीर त्याग करें तो परमात्मा उनके सम्मुख हों……
   
    कृष्ण पांडवों  के साथ भीष्म के दर्शन को पहुंचते हैं भीष्म बांणों की सैय्या पर लेटे हैं, भीष्म विचार कर रहे हैं कि मुझे तो सूर्य उत्तरायण में प्राणों का त्याग करना है, काल से स्वयं भीष्म ने कहा था कि मैं तेरा गुलाम नहीं हूं मैं तो गोविन्द का दास हूं, मैं चाकर गोविन्द को, लोग अपना जीवन सुधारने के लिये दिन रात प्रयास में लगे रहते हैं परन्तु गोविन्द अपने भक्त की मृत्यु सुधारने के लिये आये हैं…….
   
    भीष्म को वरदान दिया था, प्रतिज्ञा की थी पितामह से द्वारिकाधीश ने कि उनके अन्तिम समय में वो उन्हें दर्शन देने आवश्य आयेंगे ऐसा वत्तांन्त है,  महाभारत का युद्ध चल रहा था युद्ध होते होते आठ दिन व्यतीत हो गये लेकिन किसी पांडव को कोई खरोच तक नहीं आई, सूर्यास्त के पश्चात युद्ध बन्द हुआ तो दुर्योधन पितामह भीष्म के पास गया उसने पितामह से व्यंगात्मक लहजे में कहा, “पितामह आठ दिन हो गये युद्ध चलते हुए आपने एक भी पांडव को ना मार पाए और ना ही घायल कर पाए हैं, या तो मुझे लगता है कि आप बृद्ध हो गये हैं अन्यथा आप पांडवों के ममता और मोह वश ऐसा कर रहे हैं आपके वांण पांडवों पर चलते ही नहीं हैं मुझे मालूम है कि पांडव आपको बहुत प्रिय हैं
   
   पितामह भीष्म को बहुत दुख हुआ दुर्योधन की बातें सुनकर, उन्होने विचार किया कि आज तो दुर्योधन हस्तिनापुर के प्रति मेरी निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है, भीष्म आवेश में आ गये और दुर्योधन से बोले, “दुर्योधन, आज रात जब मैं परमात्मा के ध्यान में बैठूं तो अपनी पत्नी को आशिर्वाद लेने के लिये भेजना, मैं उसे आखण्ड सौभाग्यवती होने का आशिर्वाद दे दूंगा, मैं तुमसे भी उतना ही स्नेह करता हुं इस पर प्रश्न मत लगाओ”   दुर्योधन प्रसन्न हो गया, और चला गया I
   
    कृष्ण को सब पता चला चुका था, कृष्ण इस घटना को जानने के बाद योजना बनाने लगे, रात्रि में जब दुर्योधन की पत्नी भानुमती पितामह के शिविर की ओर जा रही थी, तभी भगवान श्रीकृष्ण शिविर की ओर से चलते हुए भानुमती के पास पहुंचे और भानुमती से प्रश्न किया कि कहां जा रही हैं, भानुमती ने कृष्ण को बताया कि पितामह के पास प्रणाम करने जा रही हुं, इस पर कृष्ण ने कहा मैं भी उधर से आ रहा हूं पितामह भगवान की स्तुति अरधना ध्यान आदि में लीन हैं अभी काहे की जल्दी है, कल चली जाना, कृष्ण की माया से मोहित भानुमती वापस चली जाती है,,,…..         
     
     भानुमती के वापस चले जाने के बाद मायपति कृष्ण द्रोपदी के पास जाते हैं और द्रोपदी को जगा कर द्रोपदी से कहते हैं कि तुरन्त पितामह के पास प्रणाम करने चलना है, मैंने बहुत से तपस्वियों से यह कथा सुनी है कि कृष्ण ने वहां दो रूप धारण किये थे एक तो कृष्ण का जो द्रोपदी के लिवाकर पितामह के शिविर में गये दूसरा द्रोपदी का जो अर्जुन के साथ शैया पए शयन कर रही थी, कृष्ण तो भक्तन हितकारी हैं भक्त के कल्याण हेतु कुछ भी करते हैं I
   
   कृष्ण द्रोपदी को लिवाकर पितामह के शिविर में जाते हैं पितामह परमात्मा के ध्यान में लीन हैं द्रोपदी के साथ श्याम सुन्दर शिविर में प्रवेश करने लगे तो द्वारपाल ने रोक दिया, आदेश नहीं है किसी पुरुष के अन्दर जाने का…… द्रोपदी शिविर में प्रवेश कर जाती है ध्यानस्थ पितामह के सामने जाकर प्रणाम करती है, पितामह ने ऐसा सोचा कि दुर्योधन की पत्नी भानुमती है अतः उन्होने आशिर्वाद दिया, “अखंड सौभाग्यवती भव

    द्रोपदी को तो कॄष्ण ने आशिर्वाद के विषय में और कुछ बताया ही नहीं था अतः उसने पितामह से अश्चर्य चकित होकर पूछ दिया, “पितामह आपका आशिर्वाद सत्य होगा ?”

द्रोपदी के शब्दों को सुनते ही पितामह ने पूछा, “हे देवी, आप कौन हैं

द्रोपदी ने उत्तर देते हुए कहा, “हे पितामह मैं द्रोपदी हूं

पितामह विचार कर रहे हैं कि पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा तो मैंने आवेश में की थी, सत्य तो यह है कि मैं उनसे अत्यन्त प्रेम करता हूं,      

पितामह मुस्कुराते हुए बोले, “देवी जब मैंने आशिर्वाद दे दिया है तो सत्य होगा ही, परन्तु बेटी ति मुझे सिर्फ़ इतना बता दे कि तू यहां इस शिविर में अकेले कैसे आई है ? तुझे साथ लाने वाला कहां है ?” पितामह की आंखें नम हो गईं यह कहते कहते……..
  
    पितामह उठ कर दौड़्ते हुए शिविर से बाहर आ गये, कृष्ण सामने खड़े हैं भीष्म कह रहे हैं, “हे गोविन्द मैं तुम्हारा ध्यान अन्दर कर रहा था, तुम बाहर खड़े हो तुम भक्त वत्सल हो, आज तुमने मुझे धर्म संकठ से बचाया है हे केशव, मैंने तो आवेश में दुर्योधन को वचन दिया था पांडवों के बध करने का परन्तु हे गोविन्द तुमने अनर्थ होने से बचा लिया……
   
    भीष्म भगवान की स्तुति कर रहे हैं भगवान भी मुस्कुरा रहे हैं द्रोपदी दोनो की लीला देख रही है, भगवान और भक्त दोनों का संवाद हो रहा है द्रोपदी देख रही है, कृष्ण भीष्म को पितामह कहते हैं उन्हें प्रणाम करते हैं परन्तु भीष्म तो उन्हें जगतपति कहते हैं भगवान कहते हैं और प्रणाम भी करते हैं द्रोपदी यह देख कर भृमित है I
    
    तभी पितामह भगवान से बोले, “हे केशव, ये आपकी ही कृपा है कि मैं आपका चिन्तन, ध्यान, पूजन आदि करता हूं बल्कि मैं कहूं कि आप ही मुझसे कराते हो, परन्तु हे केशव, एक विनती है तुमसे जब मेरा अन्त समय होगा तब पता नहीं मेरी शारीरिक स्थिति कैसी होगी, मेरी स्मरण शक्ति कैसी होगी, मेरे नेत्रों की देखने की शक्ति होगी कि नहीं होगी कुछ पता नहीं परन्तु हे केशव मेरा तुमसे बस एक निवेदन है कि उस समय जब मैं शरीर से मुक्त हो रहा होऊं तब मैं तुम्हारा स्मरण कर पाऊं या नहीं, मैं तुम्हें पुकार पाऊं या नहीं पता नहीं तब हे प्रभू उस समय आप मेरे अंत काल में मुझे दर्शन देने आवश्य आना, मैं चाहता हुं हे गोविन्द मेरे अंत समय में आप मेरे सामने रहो, हे द्वारिका नाथ आज मुझे वचन दीजिये प्रतिज्ञा करिये मुझसे……..
    
    तब श्रीकृष्ण ने पितामह से प्रतिज्ञा की थी वह प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये कृष्ण आज पितामह के पास पांडवों के साथ आए हैं……   
   
   पितामह को बावन दिन हो गये हैं बांणों की सैया पर लेटे हुए, सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं भीष्म और असाध्य कष्ट सहन कर जाने अनजाने अपने किये हुए पापों का प्रश्चित भी कर रहे हैं, पितामह सैया पर हैं, उन्हें देखने देवर्षि, राजर्षि और बृम्हर्षि आये हैं, व्यास, नारद, धौम्य, भरद्वाज, आदि अपने शिष्यों के साथ आये हैं परशुराम, वशिष्ठ, गौतम, विश्वामित्र तथा सुदर्शन आदि ऋषि सभी पितामह के आस पास खड़े हैं अध्यात्म की चर्चा हो रही है, तभी किसी ने पितामह को संदेश दिया कि द्वारिकाधीश पांडवों, कुन्ती तथा द्रोपदी आदि के साथ आए हैं, पितामह के नेत्रों में अश्रु भर आये तभी द्वारिकाधीश पितामह के नजदीक आ गये उन्होने पितामह को प्रणाम किया, पितामह के नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हो गई, द्वारिकाधीश भी करुणा से भर गये और बोले, “पितामह, वासुदेव नन्दन कृष्ण का प्रणाम स्वीकार करिये, देखिये महाराज युधिष्टिर आपसे मिलने अपने भाइयों के संग आये हैं, साथ बुआ कुन्ती भी अपनी बहुओं के साथ आपके दर्शन को आयी हैं,

    पितामह तो बांणों की सैया पर लेटे हैं पितामह युधिष्टिर आदि को इधर उधर मुंह घुमाकर नहीं देख सकते वो तो असहाय लेटे हैं शरीर में आनेकों बांण धंसे हैं शरीर का सारा रक्त बह चुका है, पितामह आपने आत्मबल से जीवित हैं और उत्तरायण का इन्तिजार कर रहे हैं,,,,
   
    पितामह भीष्म के पास अनेकों ऋषि गण आदि भी एकत्र हैं पितामह कृष्ण को देखते हैं कृष्ण का दर्शन करते ही उनका हृदय आनन्दित हो गया, पितामह की आंखों से अश्रु बहने लगे, पाण्डव भी भीष्म के नजदीक पहुंच गये, पितामह सभी को निहार रहे हैं
   
    तभी कृष्ण पितामह से कहते हैं कि, “हे पितामह, युधिष्टिर को ऐसा लगता है कि इस महाभारत युद्ध के लिये ये ही दोषी हैं, तथा इन्हें ऐसा लगता है युद्ध में मारे गये लोगों की हत्या के जिम्मेदर ये स्वयं ही हैं, जब से युद्ध समाप्त हुआ है तबसे पितामह इनका मन अशात्न है पितामह, आपका जीवन एक आदर्श चरित्र है आपने जीवन भर धर्म का पालन किया है, आप अपने अनुभव ज्ञान से युधिष्टिर का मार्गदर्शन करिये, इन्हें अब इस राज्य का कार्यभार गृहण करना है आप इनके मोह को नष्ट करें पितामह”

    पितामह कृष्ण के वचन सुनकर पाण्डवों को सम्बोधित करते हुए बोले, “तुम लोग सदैव धर्म के मार्ग पर चलते रहे, गुरु, ब्रम्हण और भगवान पर आश्रित रहे उनकी आज्ञा का पालन किया उसके बाद भी कितना कष्टप्रद जीवन बीता तुम लोगों का, तुम्हारे पिता की असमय मृत्यु होने के बाद तुम्हारी माता कुन्ती ने तुम्हें पालने के लिये कितने कष्ट सहे, यह सब इन्ही की लीला है यह कहते हुए भीष्म कृष्ण की ओर इशारा करते हैं, विचार करो जहां स्वयं धर्मराज युधिष्टिर हैं, महाबली भीम हैं, परम धनुर्धर अर्जुन हैं और स्वयं भगवान कृष्ण हैं वहां विपत्तियों की संम्भावना है ? परन्तु ये कृष्ण जो तुम्हारे साथ आये हैं ये स्वयं कालरूप हैं ये कब क्या लीला कर रहे हैं क्या करने वाले हैं कोई परम ज्ञानी भी नहीं जान सकता है, युधिष्टिर इस बृम्हाण्ड की सारी घटनाएं इन्ही के आधीन हैं यही इस जगत के जगत्पति हैं और यही स्वयं अपनी माया फ़ैलाकर यहां लीला कर रहे हैं और मनुष्य इनकी माया से मोहित हैं और स्वयं को कर्ता मानकर उलझा हुआ है I इस जगत में कोई भी किसी के सुख दुख का कारण अथवा कर्ता नहीं है, कर्ता और कर्म के बन्धन से मुक्त रहो, यह मोह है जिसके कारण मनुष्य कर्ता के बंधन में बंधा है, युधिष्टिर ये योगेश्वर जिनके साथ तुम यहां आये हो इस जगत के करण कारण सिर्फ़ यही हैं इनकी ,त्रिगुणी माया से सम्पूर्ण जगत मोहित है, और यही बंधन का कारण है”
  
   ऐसा कहते हुए स्वयं पितामह ने कृष्ण से कहना आरम्भ किया, “हे गोविन्द मेरे एक प्रश्न का समाधान करो, मैंने अपने जीवन में पाप नहीं किया धर्माचरण करते हुए जीवन जिया है मैंने, मैं अपनी इन्द्रियों के आधीन नहीं रहा, यह सब आप भी जानते हैं परन्तु आज मैं अपने जीवन के अन्तिम समय में ये कष्ट भोग रहा हूं मैं बांणों की सैया पर असहनीय पीड़ा भोग रहा हूं, आखिर यह किस कर्म के फ़लस्वरूप मैं भोग रहा हुं?”
  
   कृष्ण पितामह के वचनों को सुनकर मुस्कुराए मानो कह रहे हों कि हे पितामह कितनी करुणा है आपमें युधिष्टिर सहित सभी को शिक्षा देने के लिये मुझसे यह प्रश्न कर रहे हैं, कष्ट की पीड़ा से अधिक आनन्द तो आपको मेरी उपस्थिति का है

   कृष्ण पितामह को सम्बोधित करते हुए कहने लगते हैं, “पितामह आप निष्पाप हैं तभी तो मैं आपके सम्मुख उपस्थित हूं, आपने पाप किया नहीं है परन्तु आपने पाप होते हुए देखा है जिसके फ़ल स्वरूप आपको यह कष्ट मिल रहा है

    पितामह भीष्म ने कृष्ण के वचनों को सुना और बोले हे केशव मुझे आज यह याद नहीं आ रहा कि कौन से पाप मैंने कब होते हुए देखेमुझे बतलाओ हे केशव व्याख्या करों…..

    कृष्ण कहते हैं, “पितामह, याद करिये एक दिन जब दुःशासन राज सभा में द्रोपदी को खींचते हुए लाया था जुंए में युधिष्टिर द्रोपदी को हार गये थे और दुःशासन द्रोपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करना चाहता था, आप सभा में उपस्थित थे, द्रोपदी ने आपसे गुहार लगाई थी द्रोपदी ने आपसे कहा था कि हे पितामह आप ही फ़ैसला करिये कि जो व्यक्ति अपना सब कुछ हार चुका है उसे यह अधिकार नहीं कि वह अपनी पत्नी को दांव में लगा सके, आपसे द्रोपदी ने बार बार गुहार की थी कि पितामह, आप न्याय करें कि मुझे दांव पर लगाना ही न्यायपूर्ण नहीं है,,,,


   परन्तु हे पितामह आप उस सभा में उपस्थित सबसे ज्येष्ठ थे पीतामह थे परन्तु आपने अन्याय होते हुए पाप होते हुए देखा परन्तु कुछ नहीं बोला, उस समय दुर्योधन का अन्न खाने के कारण आपकी बुद्धि मलीन हो गई थी, आप कुछ नहीं बोले थे द्रोपदी को उस सभा में आपका ही सहारा था परन्तु आपने उस पाप को नहीं रोका और हे पितामह अत्नतः द्रोपदी ने मुझे पुकारा था और मैं द्रोपदी की लाज बचाने उस सभा में आया था मैने आपको देखा था आप उस सभा में बैठे अन्याय होते पाप होते देख रहे थे सभा में आपने पाप होने दिया, इसी पाप का फ़ल है यह बांणों की सैया…….

    प्रिय पाठकों यहां एक बहुत बड़ा संदेश दे रहे हैं कष्ण और वह संदेश हैं कि हमें अपना भोजन शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिये, पितामह बहुत बड़े भक्त थे उन्होने कोई पाप नहीं किया अपने जीवन में परन्तु सिर्फ़ दुर्योधन के यहां दूषित अन्न का भोजन करने के कारण उनकी बुद्धि मलीन हो गई और उन्होने स्वयं पाप होते देखकर भी उसका बिरोध नहीं किया……

   सिर्फ़ इसलिये कि उनका भोजन पवित्र नहीं था ईमानदारी का नहीं था, इस जगह हमें यह ध्यान देने वाली बात है कि आज हम आहार शुद्धि पर ध्यान नहीं देते हमें बेईमानी, भृष्टाचार, रिश्वत तथा अपराध के द्वारा धनार्जन करने वालों के अन्न से बचना चाहिये……….

   सिर्फ़ दुर्योधन का दूषित अन्न खाने से भीष्म को मृत्यु से भी अधिक कष्टकारी पीड़ा सहनी पड़ी, तो हम यदि किसी तरह का दूषित अन्न खा रहे हैं तो क्या हम बच जायेंगे, इसलिये सावधान…….
    
   पितामह भीष्म परमात्मा के भक्त हैं उनका अन्त सुधारने भगवान को स्वयं आना पड़ा, भीष्म और कृष्ण के मध्य बहुत गहन संवाद हुआ, भीष्म कहते हैं ये द्वारिकाधीश अब मैं अपनी बुद्धि आपको समर्पित करता हुं यह कामना रहित है इच्छा हीन है मेरी बुद्धि इसे आपके चरणों में समर्पित करता हुं, ऐसा कहते हुए भीष्म परमात्मा की छवि का ध्यान कर रहे हैं परमात्मा का सुन्दर श्याम वर्ण का शरीर है, उनके कमल के समान मुख के दोनों तरफ़ बालों की घुंघराली अलकें लटक रही हैं उनके कन्धे पर सुन्दर पीताम्बर लहरा रहा है,  ऐसे सुन्दर परमात्मा के स्वरूप का स्मरण कर रहे हैं भीष्म उन्हें युद्ध के समय के वो छण याद आ रहे हैं जब, कृष्ण अपने सखा अर्जुन का रथ हांक रहे थे, मुंख के दोनों तरफ़ लहराती घुंघराली अलकें घोड़ों की टापों से उड़ने वाली घूल से मैली हो गई हैं और उनके श्याम वर्ण के सुन्दर चेहरे पर पसीने की बूंदें चमचमा रही हैं भीष्म को स्मरण हो रहा है वो छ्ड़ जब अपने नुकीले बांणों से भीष्म अर्जुन का रथ हांकते हुए कृष्ण को बींधते थे ….
   
   ऐसा कहते कहते भीष्म कृष्ण से बोले, “हे द्वारिकाधीश आपने  इस जगत में मेरी प्रतिष्ठा  बहुत बढा दी है, मैंने एक बार प्रतिज्ञा कर ली थी कि गोविन्द ने शस्त्र ना ग्रहण करने की जो शपथ ले रखी है उसे मैं तुड़वा दुंगा, आज मैं उन्हें शस्त्र ग्रहण करवा दुंगा, मेरी प्रतिज्ञा का मान कायम रखने के लिये हे गोविन्द आपने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी थी


   

   वृत्तांन्त ऐसा है महाभारत के युद्ध में एक दिन जब कौरवों की तरफ़ से युद्ध की बागडोर भीष्म जी के हांथ में थी तो यह आरोप लगे भीष्म पर कि वो अर्जुन को तथा द्वारिकाधीश को बहुत स्नेह करते हैं अतः उन पर प्रहार करते समय मोह गृस्त हो जाते हैं, बस इतनी सी पर भीष्म को आवेश आ गया बोले कल मैं ऐसा भीषण युद्ध करुंगा कि जिन द्वरिकाधीश से शस्त्र ग्रहण ना करने की शपथ ले रक्खी है उनसे शस्त्र ग्रहण करवा ही लुंगा, दूसरे दिन युद्ध शुरु हुआ भीष्म ने अर्जुन पर बांणों की बारिश कर दी, अर्जुन के कवच-कुण्डल तोड़ डाले, अर्जुन भीष्म के प्रहारों से बचता हुआ रथ से नीचे जा गिरा, भीष्म ने अपने बांणों के जबर्दस्त प्रहार से रथ को अस्त-व्यस्त कर डाला, रथ में जुते घोड़े बाणों के प्रहार से व्याकुल हो गये, वे अपने प्रांणों की रक्षा के हेतु से इधर उधर भागने लगे, रथ के पहिये भी पितामह ने काट डाले, और आज तो पितामह के प्रहार का मुख्य केन्द्र अर्जुन का रथ था, जब अर्जुन स्वयं रथ से नीचे गिर गये तो, भीष्म ने अपने प्रहार का केन्द्र कृष्ण को बना दिया, कॄष्ण के कवच कुण्डल तोड़ डाले, उनका शरीर भी बांणों से लहूलुहान कर दिया,  तो भीष्म क्रोधित सिंह की तरह टूटे रथ से नीचे कूद गये और नीचे पड़े रथ के पहिये को उठा लिया और भीष्म जी को मारने के लिये ऐसे झपटे जैसे सिंह क्रोधित होकर हाथी को मारने दौड़ता है, और परमात्मा इतने वेग से दौड़े कि उनका दुपट्टा कंधे से धरती पर जा गिरा I अर्जुन ने स्वयं दौड़कर कॄष्ण को रोका हे केशव यह आप क्या कर रहे हैं, आप तो परमात्मा हैं और आप ही मर्यादाओं को तोड़ रहे हैं

    हे गोविन्द मैंने अपना धनुष बांण नीचे गिरा दिया, मैंने तुम्हारे सामने पूर्ण समर्पण कर दिया और मैं बोल पड़ा, “हे द्वारिकाधीश क्या आज मुझे मार ही डालोगे, मेरे आक्रमण से तुम भयभीत हो गये, हे गोवोन्द जिससे काल भी डरता है, वह आज गंगा पुत्र भीष्म से इतना भयभीत हो गया कि युद्ध में शस्त्र ना ग्रहण करने की प्रतिज्ञा तोड़ कर शस्त्र ग्रहण कर लिया, वाह लीलाधारी कैसी लीला करते हो, आज मेरी लाज रखने के लिये अपनी ही प्रतिज्ञा तोड़ दी”

   ऐसा कहते हुए भीष्म कृष्ण का दर्शन करते करते उनमें ही लीन हो गये, सभी एकत्र जन समूह जय जयकार का घोष करने लगे, आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, भक्त और भगवान का मिलन देखकर सभी के नेत्र अश्रुओं से भर गये I
    
    पितामह भीष्म के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया, कृष्ण ने धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती आदि को धैर्य का उपदेश दिया, धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्टिर ने राज्य का कार्यभार गृहण किया और धर्मपूर्वक शासन करने लगे……

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (अष्टम अध्याय) परिक्षित रक्षा तथा कुन्ती का कृष्ण प्रेम


मित्रों जय श्री कृष्ण, सप्तम अध्याय में आपने जाना कि अश्वत्थामा जिसने छल पूर्वक द्रोपदी के सोते हुए पांच पुत्रों की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी थी और द्रोपदी अश्वत्थामा पर दया का भाव रखती है चूंकि अश्वत्थामा एक तो ब्राम्हण है दूसरा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र है इसलिये उसे मृत्यु दंड नहीं दिया जाता है उसके मस्तक में लगी मणि निकाल ली जाती है उसके केश काट दिये जाते हैं और उसे जीवन दान दे दिया जाता है, अश्वत्थामा पांडवो के शिविर से चला जाता है, अश्वत्थामा के चले जाने के बाद पांडव महाराज धृतराष्ट्र, रानी गान्धारी, कुन्ती तथा द्रोपदी आदि भगवान कृष्ण के साथ गंगा तट पर जाते हैं और युद्ध में मारे गये परिवार जनों आदि का अन्तिम संस्कार करते हैं उन्हें जलांजलि देते हैं उनकी जीवित काल की यादों का स्मरण कर दुख से दृवित होते हैं I

    वहां भगवान कृष्ण सभी को ज्ञानोपदेश देते हैं भगवान कहते हैं, “इस जगत में आने वाला हर प्राणी काल के आधीन है, सभी को अन्ततः मृत्यु का वरण करना ही है, आज काल ने इन्हें ग्राह बनाया है काल आप की बारी है सभी को काल के गाल में जाना ही पड़ेगा, तो फ़िर व्यर्थ शोक करना है, मृत्यु से कोई बचने वाल नहीं है
    कथा कहती है कि युद्ध के पश्चात विजयी पांडवों को उनका राज्य मिल गया, वह राज्य जो उन्हीं के धूर्त परिवार जनों द्वरा छीन लिया गया था, परन्तु युधिष्टिर दुखित थे कि उनके कारण बहुत से लोग मृत्यु को प्राप्त  कर चुके हैं, अतः धर्मशील युधिष्टिर ने राजपाठ संभालने के साथ ही  पुरोहितों को बुलवाया और तीन अश्वमेघ यज्ञ करवाये I
  
    महाराज युधिष्टिर ने राज्य का कार्यभार गृहण कर लिया था स्थितियां सामान्य हो गईं थी, सो भगवान कृष्ण ने द्वारिका के लिये प्रस्थान करने का विचार किया, भगवान की विदाई का आयोजन होने लगा भगवान का स्वागत सत्कार किया गया पांण्डवों ने राजकीय सम्मान के साथ भगवान की विदाई का आयोजन किया, भगवान श्री कृष्ण सात्यकी और ऊधव के साथ द्वारिका के लिये प्रस्थान करने वाले थे, सभी लोग अत्यन्त दुखी थे भगवान उनको छोड़कर द्वारिका जा रहे थे, तभी अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा भयभीत और व्याकुल होकर भागते हुए आती है और भगवान श्री कृष्ण के सामने आकर उनके शरणागत हो जाती है विलाप करती हुई कहती है, “हे देवेश्वर, हे योगेश्वर, आप महायोगी हैं आप की शरण में हुं आप मेरी रक्षा करिये, मुझे मालूम है इस जगत में आज मेरी रक्षा करने वाला आपके सिवा कोई नहीं है, देखिये देखिये वो अग्नि के समान काल दहकते हुए वाणों के जैसा मेरी और मेरे गर्भ की हत्या करने के लिये काल के समान मेरी तरफ़ बढता चला आ रहा है

    भगवान कृष्ण स्वयं योगी हैं, भगवान ने तुरन्त ही अपनी योग माया से जान लिये कि यह कार्य धूर्त अश्वत्थामा द्वारा किया गया है उसीने पाण्डवों के वंश को समाप्त करने के लिये अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा पर ब्रम्हाश्त्र का प्रयोग किया है
   
    जब अर्जुन ने अश्वत्थामा के मस्तक से मणि निकाल कर तथा उसके केश काट कर उसे भगा दिया तो उसने वहां से आने के पश्चात अपने अपमान का बदला लेने के लिये विचार किया उसने सोचा कि पांण्डवों के वंश को अर्थात देवकी के पुत्रों को उसने मार ही दिया है परन्तु अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा गर्भवती है और उसके गर्भ को समाप्त कर पांण्ड्वों के वंश को समाप्त किया जा सकता है और इसी उद्देश्य से धूर्त अश्वत्थामा ने इस नीच कृत्य को किया I

    भगवान श्री कृष्ण करुणावान हैं भगवान ने उत्तरा को भय से व्याकुल देखा, भगवान मोहक चितवन से उत्तरा को देख रहे हैं परमात्मा की मंद मंद मुस्कान उत्तरा को अभय कर रही है, भगवान ने स्वयं गीता में कहा हैअनन्याश्चिन्त्यो मांअर्थात तो अनन्य भाव से मुझे भजते हैं मेरी शरण आते हैं अनन्य का अर्थ है ना अन्या इती अनन्या, सिर्फ़ श्री कृष्ण दूसरा कोई नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ श्रीकृष्ण की शरण की शरण में है उत्तरा परमात्मा उत्तरा के नेत्रों के माध्यम से ऊर्जा के स्वरूप में उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गये,और उत्तरा के गर्भ को भगवान नें अपनी योग माया से ढक लिया और ब्रम्हास्त्र से गर्भ की रक्षा कीजब कि वाह्य स्वरूप में भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र धारण किया और सुदर्शन चक्र के तेज से ब्रम्हास्त के तेज को समाप्त किया, जिस समय यह सब हो रहा था उस समय अर्जुन, युधिष्टिर, भीम आदि सभी उपस्थित थे, सभी भयभीत हो गये थे सभी ने अपने शस्त्र धारण कर लिये, परन्तु उन्हें यह भी नहीं मालुम था कि ब्रम्हास्त्र को निष्क्रिय स्वयं जगतपति ही कर सकते हैं, जो उन्होंने कर दिया, परमात्मा श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा की, परमात्मा मुस्कुरा रहे हैं परमात्मा का दर्शन अभयकारी है, सभी ने आज भगवान की देव लीला का दर्शन किया है I

    उत्तरा के गर्भ की रक्षा के पश्चात भगवान द्वारिका के लिये प्रस्थान करने लगते हैं, तभी कृष्ण की बुआ, कुन्ती अपने पुत्रों, द्रोपदी तथा उत्तरा के साथ भगवान कृष्ण की स्तुति करने लगती हैं, आज तक जो कुन्ती बुआ थीं आज उन्होने कॄष्ण को ईश्वर कह कर सम्बोधित किया है, कुन्ती की आंखों में प्रेमाभक्ति के आंसू हैं, कुन्ती का गला रूंध गया है, आंसुंओं से गाल भीग रहे हैं, कुन्ती श्रीकृष्ण के सामने हांथ जोड़ कर खड़ी हैं आज तक कुन्ती कृष्ण को अपना भतीजा मानती रहीं लेकिन आज कुन्ती की परमात्म भक्ति फ़लित हो गई उन्हें साक्षात परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गये, कुन्ती अश्रुपूरित आंखों से कृष्ण को निहार रही हैं उन्हें आज कृष्ण के दर्शन से तृप्ति नहीं हो रही है क्यों कि आज उन्हें बोध हो गया कि कॄष्ण ही परमात्मा है I

    कुन्ती अपनी स्तुति में कह रही हैं, “आप तो परमतत्व हैं परमेश्वर हैं समस्त जीवों के अनदर और बाहर आप ही स्थित हैं, परन्तु अपनी इन्द्रियों और उनकी वृत्तियों के वशिभूत मनुष्य आपको देख नहीं पाता है, सब करने वाले आप ही हैं परन्तु मनुष्य अभी अनुकूल होने पर अभिमान करता है कभी प्रतिकूल होने पर दुखी होता है परन्तु जो करने वाला है उसके दर्शन से विमुख रह जाता है, मनुष्य इन्द्रियों की मांग की पूर्ती करने में व्यस्त है क्यों कि आपकी माया उसे भृमित रखती है, जैसे नट किसी पात्र का अभिनय करता है और देखने वाला नट के पात्र को पहचानता है परन्तु नट के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता है वैसे ही हे कृष्ण मैं एक साधारण स्त्री हूं आपके परमात्म स्वरूप को आज तक नहीं पहचान पाई थी I”

    कुन्ती कह रही है, “हे प्रभू आपका अवतार तो मोह और आसक्ति से परे रहने वाले शुद्ध हृदय परमहंसों में अपनी प्रेममयी भक्ति का प्राकट्य करने के लिये हुआ है, हे कृष्ण हे देवकी के सुत, हे वासुदेव के लाला गोपियों के प्यारे गोविन्द तुम्हे हम बार बार प्रणाम करती हैं, हे प्रभू आपकी ही नाभि से कमल उत्पन्न हुआ जिस पर इस सृष्टि के रचाइता बृम्हा जन्मे, आपके नेत्र भी कमल के समान सुन्दर हैं आपके गले में सुन्दर कमलों की माल है तथा आपके श्रीचरणों में कमल अंकित है, हे कृष्ण तुम्हें बारंबार प्रणाम है, हे गोविन्द जैसे आपने कंस के भय से उसकी कैद से देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही आपने मेरे पुत्रों सहित मेरी बार बार रक्षा की, कुन्ती की आंखों से निरन्तर आंसू बह रहे हैं विलाप कर रही है कह रही है हे प्रभू कितने उपकार किये आपने हम पर क्या क्या गिनाऊं दुर्योधन आदि ने मेरे पुत्रों को विष दे दिया था तब आपने ही हमारी रक्षा की, लाक्षाग्रह की आग से हमारी रक्षा की, राक्षसों की कुःदृष्टि से रक्षा की, भरी सभा में जब कोई हमारा सहारा नहीं था तो आपने द्रोपदी की पुकार सुनी हमारे कुल की लाज बचाई, वनवास में अनेकों विपत्तियों से हमारी रक्षा की, महाभारत के युद्ध में हमारी कितनी सहायता की तुम ईश्वर होकर मेरे पुत्र के सारथी बने, अनेकों बार महारथियों के शस्त्रों से युद्ध में मेरे पुत्रों की रक्षा की, हे केशव आज आज तो तुमने हमारे कुल के समाप्त होने से बचाया है, मेरी पौत्र बधू उत्तरा के गर्भ की रक्षा की है आपने ……..”

    कुन्ती की वात्सल्य भक्ति है भगवान के प्रति, परन्तु अब दास्य भाव मिश्रित वात्सल्य भक्ति हो गई, दीनता का भाव है भगवान से विनती करते हुए, कुन्ती भगवान की स्तुति करते हुए भगवान से याचना करने लगीं कुन्ती ने कहा, “हे जगत के गुरु, मेरी इच्छा है कि मेरे जीवन में निरन्तर पद पद पर विपदाएं आती रहें, निरन्तर समस्याएं आती रहें हमारे जीवन में, क्यों कि जब जब समस्याएं आती हैं तो हे केशव हमें तुम्हारी याद आती हैं और तुम हमारे पास होते हो” 

     कुन्ती परमात्मा की अनन्य भक्त हैं भगवान से उन्होने अपने जीवन में दुख की मांग की बहुत चतुर भक्त हैं कुन्ती जानती हैं उन्हें अनुभव भी है कि जब जब समस्याएं उनके जीवन में रहीं परमात्मा उनके पास उनकी सहायता में रहे….इसीलिये कुन्ती स्वयं कह रही हैं, “हे प्रभू ऊंचे कुल में जन्म होने से, सम्पत्ति वान होने से, ज्ञानवान होने से अथवा विद्यावान होने से मनुष्य में अहंकार आ जाता है, और अहंकारी परमात्मा की भक्ति के विषय में सोच भी नहीं सकता, जिसमें दीनता का भाव है, अकिंचन भाव है उसे परमात्मा स्नेह करते हैं, विद्या, एश्वर्य, सम्पत्ति तथा प्रतिष्ठा जिसकी कृपा से प्राप्त हुई है उसके लिये स्नेह हो समर्पण हो धन्यवादं का भाव हो, क्यों कि इस ब्रम्हाण्ड का समस्त वैभव सब आपकी कृपा से है, समस्त जीव, जन्तु, जलचर, मनुष्य आदि आपसे जन्मते हैं आप ही इस सृष्टि के कारण भूत हैं, ……
      
    कुन्ती भगवान को सम्बोधित करते हुए कहती हैं, “हे यशोदा नन्दन मुझे आपके बचपन की वो घटना याद है, आप छोटे थे और दूध की मटकी को आपने फ़ोड़ दिया था, आपकी माता यशोदा खीझ गईं और मैया को क्रोध आ गया, उन्होने गुस्से में आपको बांधने के लिये हांथ में रस्सी उठा ली थी, मां यशोदा को क्रोध में देखकर आप सहम गये थे भयभीत हो गये थे, मैया ने आपका हांथ पकड़ कर आपको बांधने के लिये अपनी ओर खींचा था कि आप बहुत दुखित चेहरा बनाकर रो दिये थे, आपकी आंखों से आंसू बहने लगे, आंखों का काजल बहकर आपके गालों पर आ गया था, आपके नेत्र चंचल हो गये थे भयभीत होकर आप की नजरें नीचे झुकी हुई थीं, आज मुझे वो आपकी छवि ध्यान आती है तो मैं आपकी लीला से मोहित हो जाती हुं जिसके भय से भय भी भयभीत है वो आज लीला कर रहा है जन्म लेकर यशोदा मां से भयभीत हो रहा है,      वेद आपको अजन्मा कहते हैं परमात्मा अजन्मा है और आप अजन्मा होकर जन्म गृहण करते हैं अवतार लेते हैं”
     
    कुन्ती कहती हैं, “भक्तवान्छाकल्पतरू प्रभो, आप हम भक्तों को छोड़कर जाना चाहते हैं आप जानते हैं कि हम लोगों के पास आपके चरणों के अलावा कोई सहारा नहीं है, अब तो हमारे बहुत से दुश्मन हो चुके हैं आपके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है”
   
    भगवान कृष्ण बुआ कुन्ती के मुख से अपने बारे में मधुर शब्दों को सुनते हुए प्रसन्न हो रहे थे मुस्कुराते हुए कृष्ण ने बुआ कुन्ती से कहा, “बुआ मैं आपकी बात मानता हुं और भगवान कॄष्ण आखिर हस्तिनापुर में रुक गये”
   कुन्ती को लगा कि गोविन्द उनकी वजह से रुके हैं, द्रोपदी विचार करती हैं कि कृष्ण उनके प्रिय हैं इसलिये उनके कारण रुक गये हैं, सुभद्रा कहती हैं मेरे कारण रुके हैं परन्तु कृष्ण किसके लिये रुके हैं यह तो कृष्ण जानते हैं परन्तु वह तो जैसा चाहते हैं वैसी लीलाएं सभी लोग करते हैं, परमात्मा रुक जाते हैं परमात्मा के रुकने से महाराज युधिष्टिर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं, युधिष्टिर युद्ध में बहुत से परिजनों के मारे जाने के कारण बहुत चिन्तातुर थे उनके मन में दोषी का भाव था उन्हें ऐसा महसुस हो रहा था कि युद्ध में मारेगये उनके परिजनों के लिये वही दोषी हैं, धर्मराज युधिष्टिर को व्यास, विदुर आदि ने समझाने का प्रायास किया परन्तु कोई फ़र्क नहीं हुआ, भागवान कृष्ण ने सोचा कि युधिष्टिर को समझाने का प्रायास करना चाहिये जिससे उनका अविवेकी चित्त विवेक युक्त और मोह से निवृत्त हो सके……

    कृष्ण विचार करते हैं तथा धर्मराज युधिष्टिर को विवेकपूर्ण और ज्ञानपूर्ण वक्तव्य सुनाकर धर्मराज युधिष्टिर को समझाने का प्रयास किया परन्तु युधिष्टिर पर कोई फ़र्क नहीं हुआ, कारण यह कि युधिष्टिर ने कृष्ण को सिर्फ़ स्नेह किया था, कृष्ण उनसे छोटे जो थे सो कृष्ण ने निश्चय किया कि धर्मराज की दृष्टिः में कृष्ण की बातों का कोई महत्व नहीं है सो उन्होने विचार किया कि युधिष्टिर को भीष्म से उपदेश दिलाया जाय, क्यों कि कृष्ण ही इस जगत के प्राणी के मुंख से बोल रहे हैं, इसलिये कृष्ण ने निश्चय किया कि युधिष्टिर को पितामह भीष्म से ज्ञानोपदेश दिलवाया जाय, मुंह ही तो भीष्म का होगा वचन तोम कॄष्ण के ही होंगे, आखिर कृष्ण स्वयं बांणों की सैया पर लेटे भीष्म को दर्शन देना चाहते हैं, और कृष्ण भीष्म को लेकर पितामह भीष्म के दर्शन को चल देते हैं….………….       
जय जय श्री राधे………..

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

विनमृ निवेदन


 इस ब्लोग को पढ्ने वाले सभी मित्रों से विनमृ निवेदन है कि इस ब्लोग के सदस्य बने...
 मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि कुछ सौभाग्यशाली मित्र विदेशों में भी इसको पढ रहे हैं कुछ कैलीफ़ोर्निया में कुछ कनाडा में , कुछ जापान में आदि आदि जागहों पर इसका रसास्वादन कर रहे हैं उनसे भी निवेदन है कि नीचे प्रस्तुत दृश्य को ब्लाग में क्लिक कर इस ब्लोग के सदस्य बनें 


श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (सप्तम अध्याय (2)) अश्वत्थामा को दंड

                                             

    मित्रों सप्तम अध्याय के प्रथम भाग में आपने जान कि परम वैरागी संन्त श्री शुकदेव जी ने श्रीमदभागवत जी का अध्यन किया तथा सप्तम अध्याय के द्वितीय भाग में हम जानेंगे कि अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों की हत्या की कथा, द्रोपदी की करुणा की कथा तथा नीतिगत विवेक द्वारा अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा को दंड की कथा ....

   सूत जी महाराज कथा के वक्ता हैं और आसन पर विराजमान हैं शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं तो सूत जी महाराज कहते हैं, “हे ऋषियों मैं आपको राजर्षि परिक्शित के जन्म, कर्म और मोक्ष की कथा सुनाता हुं क्यों कि भगवान कृष्ण के रसमय चरित्र की अनेकों कथाओं का उदय इन सभी वृत्तन्तों से होता है,

   सूत जी कह रहे हैं कि, “महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है, पांडवों की विजय हुई है, दोनों पक्षों के बहुत से योद्धा विरगति को प्राप्त हो चुके हैं, युद्ध में भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा टूट गई थी, दुर्योधन घायल पड़ा है, पांदवों के गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा जो दुर्योधन का मित्र था वह अपने मित्र के दुख को देखकर अत्यन्त दुखी हो रहा था,

   अश्वत्थामा के मन में पाप आ गया चूंकि वह था ब्राम्हण का पुत्र परन्तु मित्रता दुर्योधन से थी सो संग दोष के कारण वह पापी प्रवृत्ति का हो गया था, उसने देखा कि पांडवों ने उसके मित्र को कितना कष्ट दिया है तमाम योद्धाओं का अन्त हो चुका है, दुर्योधन के सारे भाई विरगति को प्राप्त हो गये हैं स्वयं दुर्योधन जीवित से भी बुरी अवस्था में कराह रहा है सो अश्वत्थामा ने निश्चय किया कि वह छ्ल पूर्वक पांडवों का बध कर देगा I


   मन में इस प्रकार की पापावृत्ति का चिंतन करते हुए अश्वत्थामा ने योजना बनाई कि आज रात वह उस शिविर में जायेगा जहां पांडव रात्रि विश्राम करते हैं और सोते हुए पांडवों की हत्या कर उनके सिर अपने घायल मित्र को भेंट करेगा, जिससे उसके मित्र का दुख कुछ कम होगा……

   परन्तु जिसकी रक्षा स्वयं भगवान कृष्ण कर रहे हैं उसे कौन मार सकता है पांडव जिस शिविर में विश्राम करते थे वहां भगवान श्री कृष्ण गये और पांचो पांडवों को किसी कार्यवश वहां से  लिवा ले गये अंततः रात्रि विश्राम के लिये पांडव उस शिविर में नहीं गये, रात्रि में अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में जाता है रात्रि में अन्धकार था और शिविर में पांडव नहीं बल्कि द्रोपदी के पांचो पुत्र सोए हुए थे I 

   अश्वत्थामा वहां सोते हुए द्रोपदी के पांचो पुत्रों के सिर काट कर उनकी हत्या कर देता है तथा उनके सिर लेकर अपने मित्र दुर्योधन के पास जाता है और कटे हुए सिर अपने मित्र को यह समझ कर भेंट करता है कि उसने पांचो पांडवों की हत्या कर दी है परन्तु अंधेरे में उसने हत्या तो द्रोपदी के पुत्रों की की थी, अश्वत्थामा कटे हुए सिर दुर्योधन को दिखाने जाता है उसके मन में विचार है कि दुर्योधन जो अत्यन्त दुखी है वह अपने शत्रुओं के कटे सिर देख कर संन्तुष्ट हो जायेगा, परन्तु दुर्योधन जब द्रोपदी के पुत्रों के कटे हुए सिर देखता है तो वह और अधिक दुखी हो जाता है, जिस दुर्योधन के लोभ के कारण महाभारत हुई, जिसके भाई युद्ध में मार दिये गये, उसने देखा कि उसके शत्रु पांडवों के पुत्रों के कटे सिर तो दुर्योधन को भी यह अच्छा नहीं लगा वह दुखी हुआ उसने अश्वत्थामा से कहा मित्र तुम तो ब्राम्हण हो और तुमने इस प्रकार हत्या की यह अत्यन्त नीच कृत्य है निन्दनीय है…..      

   उधर द्रोपदी ने जब अपने पुत्रों की हत्या का समाचार सुना तो द्रोपदी अत्यन्त दुखी हो गई,  उसके नेत्रों में अश्रु भर आये, विलाप करने लगी, अर्जुन द्रोपदी को धीरज बंधाने का प्रयास कर रहे हैं, द्वारिका नाथ कृष्ण द्रोपदी को विलाप करते देख स्तब्ध हैं देख रहे हैं जिस द्रोपदी की परमात्मा ने हर विपदा में सहायता की आज वह द्रोपदी अधीर हो कर विलाप कर रही है, उसके पांचो पुत्रों की आज अश्वत्थामा ने छल से हत्या कर दी, द्रोपदी ने विलाप करते हुए कृष्ण की ओर देखा मानो कह रही हो, “हे केशव अब तो युद्ध भी समाप्त हो चुका है, राज्य की प्राप्ति हो चुकी है और कपट पूर्वक मेरे निरपराध पुत्रों की हत्या कर दी अश्वत्थामा नें


   द्वारिका नाथ निष्ठुर खड़े द्रोपदी को विलाप करता देख रहे हैं, भगवान की लीलाओं को कौन समझ सकता है, परमात्मा ने तो पांडवों की सुरक्षा की थी, और फ़िर कौन जन्मता है और कौन मृत्यु को पाता है यह तो सिर्फ़ लीला है, सभी पात्रों में है तो मेरा गोविन्द ही…..

   अर्जुन भी दुखी हैं परन्तु द्रोपदी का विलाप से अर्जुन को और दुख हो रहा है अर्जुन प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक अश्वत्थामा का सिर काट कर नहीं लाउंगा तब तक द्रोपदी के आंसू नहीं पोछुंगा, और द्रोपदी से कहते हैं कि पुत्रों के अन्तिम संस्कार के बाद ये द्रोपदी तुम अश्वत्थामा के सिर पर पैर रख कर स्नान करना….

   अर्जुन अपने अस्त्र शास्त्र धारण करके अश्वत्थामा को मारने के लिये चल पड़ते हैं रथ का संचालग श्याम सुन्दर कर रहे हैं, अश्वत्थामा को पता लग गया कि अर्जुन उससे बदला लेने के लिये आ रहा है, अश्वत्थामा भी अत्यन्त भयभीत है वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए रथ पर चढ कर भागता इस तरह भागता है जैसे शिव के भय से बृम्हा भागे थे, अर्जुन के रथ को स्वयं भगवान कृष्ण चला रहे थे और अश्वत्थामा के रथ का पीछा कर रहे थे, अश्वत्थामा भय से भाग रहा था अर्जुन उसे काल के समान प्रतीक हो रहा था, जैसे जैसे अर्जुन का रथ उसके रथ के नजदीक आत जा रहा था उसका भय बढता जा रहा था, अश्वत्थामा के रथ के घोड़े थक चुके थे और जब अश्वत्थामा को लगा को अब वह अर्जुन से बचकर भाग नहीं पाएगा तो उसने भय वश अर्जुन पर  ब्रम्हास्त्र चला दिया,,,,


    ब्रम्हास्त्र के प्राभाव से चारों दिशाओं में प्रचण्ड प्रकाश फ़ैल गया, अत्यन्त भयानक वातवरण निर्मित हो गया, अर्जुन इससे अत्यन्त भयभीत हो गया उसे अपने प्राण संकठ में प्रतीत होने लगे और जब जीव भयभीत होता है तो परमात्मा को पुकारता है अर्जुन श्री कृष्ण की विनती करने लगते हैं, हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर आप भक्तों के भयों का अन्त करने वाले हैं हे गोविन्द मेरे प्रांण संकठ में हैं मेरी रक्षा करो……
 
   परमात्मा श्री कृष्ण ने देखा कि ब्रम्हास्त्र के कारण यह महान तेजमय वातवरण हो गया है जिससे अर्जुन भी भयभीत हो गया है अतः परमात्मा ने अर्जुन से कहा हे अर्जुन, अश्वत्थामा ने तुम्हे लक्ष्यं बनाकर ब्रम्हास्त्र चलाया है, ब्रम्हास्त्र को निष्क्रिय करने की शक्ति किसी भी शस्त्र में नहीं है हां अश्वत्थामा इसे चलाना जानता है परन्तु वह इसे निष्क्रिय करना अथवा लौटाना नहीं जानता है, हां एक उपाय है कि ब्रम्हास्त्र के तेज को सिर्फ़ ब्रम्हास्त्र के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है I
   
    देवकी नन्दन के मुख से इस प्रकार के वचनों को सुनकर अर्जुन ने तुरन्त ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया, दोनों ब्रम्हास्त्र तेज प्रलयकारी अग्नि के समान ब्रम्हाण्ड में टकराए, भयंकार आवाज और प्रकाश से सम्पूर्ण बम्हाण्ड जगमगा गया I
  
    अर्जुन की आंखे क्रोध से लाल हो रही थीं, उसने रथ से कूड कर अश्वत्थामा को पकड़ लिया और रस्सी से बांध कर रथ में डाल दिया, अर्जुन अश्वत्थामा को लेकर अपने शिविर में आते हैं और विलाप कर रही द्रोपदी के सामने बंधे हुए अश्वत्थामा को पशुओं की भांती खीच कर डाल देते हैं, मानो द्रोपदी से अर्जुन कह रहे हों लो द्रोपदी तुम्हारे पुत्रों का हत्यारा ले लो इससे बदला I   जिस समय अश्वत्थामा द्रोपदी के सम्मुख लाया गया, उस समय द्रोपदी विलाप कर रही थी, और अश्वत्थामा का मुंह सर्म से झुका हुआ था उसने काम ही इतनी नीचता का किया था I
    
   द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों की हत्या करने वाले अश्वत्थामा को अर्जुन खिंच कर द्रोपदी के सामने लाते हैं द्रोपदी आंगन में बैठी है वहीं उसके पांचो पुत्रो के शव पड़े हैं, अश्वत्थामा का चेहरा शर्म से झुका हुआ था परन्तु द्रोपदी नें जो किया वह एक भक्त ही कर सकता है इस भारत की नारी, एक वीर मां ही कर सकती है, द्रोपदी ने देखा कि अश्वत्थामा को इस प्रकार अपमानित किया जा रहा है तो द्रोपदी को दुख हुआ, द्रोपदी ने सर्वप्रथम अश्वत्थामा को पहले प्रणाम किया फ़िर अर्जुन से कहती है मेरे सामने ब्राम्हण का अपमान मत करो, गुरू पुत्र हैं जो विद्या गुरु द्रोणाचार्य जी ने अपने पुत्र को नहीं सिखाई वह विद्या उन्होने आपको सिखाई हैऔर से गुरु के पुत्र हैं अश्वत्थामा इन्हें छोड़ दो छोड़ दो, द्रोपदी कहती है ये ब्राम्हण हैं, हम सभी के लिये पूजनीय हैं, जिनकी कृपा से आप लोगों ने शास्त्र संचालन आदि का ज्ञान हुआ उन गुरु द्रोणाचार्य और गुरु मां कृपी के पुत्र हैं अश्वत्थामा जी, आप देखिये ये अश्वत्थामा नहीं ये साक्षात आपके गुरु द्रोणाचार्य जी खड़े हैं हमारे समक्ष, गुरु द्रोणाचार्य जी की मृत्यु के पश्चात माता कृपी इन्हीं अश्वत्थामा के मोह और ममता के कारण सती नहीं हो पाईं, हे आर्यपुत्र आप तो परम धर्मज्ञ हैं जिस गुरु परिवार को नित्य पूजा वन्दना करनी चाहिये उसे दुःख पहुंचाना , पीड़ित करना, व्यथित करना आपके अनुकूल नहीं है, द्रोपदी को याद आ रही है अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के बध के लिये की गई प्रतिज्ञा द्रोपदी कहती हैं कि आज मैं अपने पुत्रों के मर जाने से आज दुख पा रही हुं,परन्तु मैं नहीं चाहती की कल गुरु मां भी इसी दुख को प्राप्त हों I
    
   भारत की नारी अपने पांच पांच पुत्रों की हत्या करने वाले को प्रणाम करती है उससे बैर भाव नहीं रखती और प्रणाम इसलिए करती है कि वह ब्राम्हण है, भागवत की कथा हमें जीवन का दर्शन सिखा रही है कि किसी से शत्रुता का भाव नहीं रखना है, अश्वत्थामा द्रोपदी के व्यवहार को देखकर दृवित हो गया वो विचार करता है कि मैंने आज तक द्रोपदी के बारे में जितना मैंने सुना वह कम था द्रोपदी तो पूजनीय है वन्दनीय़ है आचार्य है द्रोपदी व्यवहारिकता की I

    द्रोपदी ने यह दर्शन कराया कि आखिर गोविन्द के भक्त के क्या आचरण होने चाहिये करूणा और दया की प्रतिमूर्ति हैं द्रोपदी....
   
    पत्नी का परम कर्तव्य है कि वह सदैव अपने पति को धर्माचरण करने के लिये प्रेरित करे, द्रोपदी ने आज जो वचन कहे युधिष्टिर जी ने उन वचनों का समर्थन किया, साथ ही अर्जुन, नकुल, सहदेव, आदि सहित भगवन कृष्ण ने भी समर्थन किया, परन्तु भीम ने कहा यह हत्यारा है इसने बाल हत्या की है यह मृत्यु दंड का अधिकारी है I
    
   आखिर कृष्ण जो द्रोपदी के भाव से प्रसन्न थे उन्होने नीतिगत बात करते हुए कहा, “चूंकि अश्वत्थामा ब्राम्हण झै अतः इसे मृत्यु दंड नहीं दिया जाना चाहिये परन्तु यह बाल हत्या का दोषी भी है अतः इसे बिना दंड के छोड़ना भी उचित नहीं इसे मृत्यु दंड सम दण्ड देना चाहिये


   अर्जुन कृष्ण के हृदय की बात जान गये  उन्होने विचार किया कि इसके केश काट दिये जायें तथा इसके मस्तक में स्थित मणी निकाल ली जाये इससे नीतिगत रहते हुए इसे दण्ड दिया जा सकता है एक सम्मान जनक स्थिति वाले ब्राम्हण के केश काट दिये गये और उस्के मस्तक से मणि निकाल ली गई, यह अपमान अश्वत्थामा के लिये मृत्यु से भी अधिक है….
    
    ऐसा विचार करते हुए अर्जुन ने तलवार निकाली और अश्वत्थामा के सिर को मूड़ दिया तथा उसके मस्तक से मणि को निकाल दिया, फ़लस्वरूप अश्वत्थामा तेज हीन हो गया यह स्थिति उसके लिये मृत्यु तुल्य थी,


    इसके पश्चात द्रोपदी, सहित समस्त पांडवों दुखी थे और उन्होने सभी मृत आत्माओं का पिण्ड दानादि कर्म समपन्न कराए……..